Surdas Ka Jivan Parichay ! भारतीय साहित्य और भक्ति आंदोलन के स्वर्णिम इतिहास में जिन महान व्यक्तित्वों ने अपनी अनन्य भक्ति और अमर रचनाओं से धर्म और समाज को एक नई दिशा दी, उनमें महाकवि सूरदास का नाम सर्वोपरि है। “सूरदास का जीवन परिचय” (Surdas Ka Jivan Parichay) केवल एक ऐतिहासिक विवरण नहीं है; यह एक आध्यात्मिक यात्रा है, जो एक साधारण मानव को भगवान श्रीकृष्ण के प्रति अनन्य प्रेम और भक्ति के माध्यम से एक महान संत और कवि के रूप में परिवर्तित होने की गाथा है।
सूरदास जी ने अपनी दिव्यदृष्टि से श्रीकृष्ण के बाल स्वरूप और लीलाओं का ऐसा सजीव और मनोहारी वर्णन किया है कि पाठक या श्रोता स्वयं को वृंदावन की गलियों में, यशोदा मैया की गोद में खेलते हुए बालक कृष्ण के समीप पाता है। उनकी इसी सामर्थ्य ने उन्हें ‘भक्ति काव्य का सूर्य’ और ‘अष्टछाप’ का एक प्रमुख स्तंभ बना दिया। इस लेख में, हम सूरदास जी के जीवन के हर पहलू को विस्तार से जानेंगे – उनका जन्म, बचपन, अंधत्व, वल्लभाचार्य जी से भेंट, उनकी रचनाएँ, उनके काव्य की विशेषताएँ और हिंदी साहित्य में उनका अमर योगदान
अध्याय 1: सूरदास का प्रारंभिक जीवन और पारिवारिक पृष्ठभूमि
जन्म स्थान और काल
सूरदास के जीवन के बारे में ऐतिहासिक रूप से निश्चित और प्रमाणित तथ्यों का अभाव है। फिर भीं, अधिकांश विद्वान और इतिहासकार उनका जन्म 1478 ईस्वी के आसपास मानते हैं। उनके जन्म स्थान को लेकर भी मतभेद हैं, लेकिन दो स्थान सर्वाधिक प्रसिद्ध और स्वीकार्य हैं:
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रुनकता (रुनकता गाँव): यह गाँव वर्तमान हरियाणा के फरीदाबाद जिले में आगरा-दिल्ली मार्ग पर स्थित माना जाता है। यह स्थान अधिक प्रचलित और लोकप्रिय है।
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सीही (सीही गाँव): कुछ विद्वानों का मानना है कि सूरदास का जन्म दिल्ली के पास स्थित सीही नामक गाँव में हुआ था।
उनके जन्म को लेकर एक और महत्वपूर्ण मान्यता यह है कि वह एक सारस्वत ब्राह्मण परिवार में पैदा हुए थे।
पारिवारिक पृष्ठभूमि
सूरदास के पिता का नाम पंडित रामदास सारस्वत बताया जाता है। कुछ स्रोतों में उनके पिता का नाम ‘बाबा रामदास’ भी मिलता है। परिवार संपन्न और विद्वान था। लेकिन सूरदास का बचपन बहुत सुखद नहीं रहा।
जन्म से अंधे होने की कथा बनाम दंतकथा
सूरदास के अंधेपन को लेकर एक बहुत बड़ा विवाद और रहस्य है। क्या सूरदास जन्म से ही अंधे थे? इस प्रश्न के दो पक्ष हैं:
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जन्मजात अंधत्व की मान्यता: एक मान्यता के अनुसार, सूरदास जन्म से ही अंधे थे। इसके पीछे एक लोकप्रिय कथा प्रचलित है। कहा जाता है कि बचपन में एक बार उन्होंने एक साधु की सेवा की, लेकिन वह साधु उन पर नाराज हो गया और उसने श्राप दे दिया कि तुम अगले जन्म में अंधे पैदा होंगे। इसी श्राप के कारण उनका जन्म अंधे के रूप में हुआ।
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बाद में अंधे होने की ऐतिहासिक सम्भावना: दूसरे पक्ष के विद्वानों का मानना है कि सूरदास जन्म से अंधे नहीं थे। उनके काव्य में प्रकृति और श्रीकृष्ण के सौंदर्य का इतना सूक्ष्म और जीवंत वर्णन मिलता है कि यह कल्पना करना कठिन है कि यह एक जन्मांध व्यक्ति की रचना हो सकती है। उन्होंने श्रीकृष्ण के रूप-सौंदर्य, वस्त्राभूषण, वृंदावन की प्रकृति, यमुना का जल, ऋतुओं का चित्रण इतने जीवंत ढंग से किया है कि लगता है मानो उन्होंने इन सबको अपनी आँखों से देखकर ही वर्णित किया हो। इसलिए, यह माना जाता है कि संभवतः बाद में किसी दुर्घटना या बीमारी के कारण उनकी आँखों की ज्योति चली गई हो।
यह विवाद आज भी बना हुआ है, लेकिन इतना निश्चित है कि चाहे शारीरिक आँखों से वह देख नहीं पाते थे, लेकिन उनकी आंतरिक दृष्टि (अंतर्दृष्टि) इतनी प्रखर थी कि उन्होंने भगवान के दिव्य रूप को साक्षात देखा और उसे शब्दों में पिरोकर संसार के सामने प्रस्तुत किया।
बचपन और युवावस्था का संघर्ष
अपने अंधेपन के कारण सूरदास को बचपन से ही परिवार और समाज में उपेक्षा का सामना करना पड़ा। कुछ स्रोतों में उल्लेख है कि उनके माता-पिता ने भी उन्हें पर्याप्त स्नेह नहीं दिया। इस उपेक्षा और कठिनाई से आहत होकर लगभग छह-सात वर्ष की आयु में ही वह घर छोड़कर चले गए। यहीं से उनके जीवन की वास्तविक यात्रा आरंभ हुई।
अध्याय 2: आध्यात्मिक मोड़ और वल्लभाचार्य जी से भेंट
घर छोड़ने के बाद सूरदास कुछ समय तक आगरा के पास गऊघाट पर रहे। वहाँ वह भजन-कीर्तन करके अपना जीवन-निर्वाह करने लगे। उनकी कविता और संगीत में एक अद्भुत माधुर्य और भक्ति-भावना थी, जो लोगों को आकर्षित करती थी। लेकिन उनका जीवन अभी भी एक लक्ष्यविहीन भटकाव की स्थिति में था।
वल्लभाचार्य जी से ऐतिहासिक मुलाकात
सूरदास के जीवन का सबसे महत्वपूर्ण मोड़ तब आया जब वह श्री वल्लभाचार्य जी से मिले। वल्लभाचार्य ‘पुष्टिमार्ग’ के प्रवर्तक और एक महान दार्शनिक थे। कहा जाता है कि 1510 ईस्वी के आसपाम, वल्लभाचार्य जी गऊघाट से गुजरे। उन्होंने सूरदास को भजन गाते हुए सुना। सूरदास के काव्य में भक्ति तो थी, लेकिन एक प्रकार का वैराग्य और विषाद भी झलक रहा था।
वल्लभाचार्य जी ने उनसे पूछा, “तुम किसका गान कर रहे हो?” सूरदास ने उत्तर दिया, “मैं तो अपने नाथ (स्वामी) का गान कर रहा हूँ।” तब वल्लभाचार्य जी ने कहा, “जिस नाथ का तुम गान कर रहे हो, यदि तुमने उसे एक बार भी देख लिया होता, तो तुम्हारा गान इस प्रकार विषादपूर्ण नहीं होता।”
यह वाक्य सूरदास के हृदय में उतर गया। वल्लभाचार्य जी ने उन्हें पुष्टिमार्ग की दीक्षा दी और श्रीकृष्ण की बाल लीलाओं, उनके सौंदर्य और उनकी प्रेम-भक्ति का रहस्य समझाया। उन्होंने सूरदास को वृंदावन जाकर रहने और श्रीकृष्ण की लीलाओं का गान करने का आदेश दिया। इस मुलाकात ने सूरदास के जीवन और काव्य दोनों को एक नई दिशा दी। वह केवल एक कवि नहीं रहे, वह श्रीकृष्ण का एक अनन्य भक्त बन गए।
अष्टछाप का निर्माण
वल्लभाचार्य जी के पुत्र और उत्तराधिकारी विट्ठलनाथ जी ने ‘अष्टछाप’ की स्थापना की। अष्टछाप का अर्थ है ‘आठ छाप (मुद्रांकन) वाले’। यह आठ श्रेष्ठ कवि-भक्तों का एक समूह था, जो पुष्टिमार्ग की सेवा में रचनाएँ करते थे और जिनकी रचनाओं पर श्रीनाथजी (भगवान कृष्ण) की छाप (स्वीकृति) मानी जाती थी। सूरदास को इस अष्टछाप का प्रमुख और सर्वश्रेष्ठ कवि माना जाता है।
अध्याय 3: सूरदास की प्रमुख रचनाएँ
सूरदास एक अत्यंत प्रतिभाशाली और रचनाशील कवि थे। माना जाता है कि उन्होंने लगभग एक लाख पद (कविताएँ) की रचना की। लेकिन दुर्भाग्यवश, उनकी अधिकांश रचनाएँ समय के साथ लुप्त हो गईं। फिर भी, जो रचनाएँ उपलब्ध हैं, वे ही हिंदी साहित्य का अमूल्य खजाना हैं। उनकी तीन प्रमुख रचनाएँ हैं:
1. सूरसागर
सूरसागर सूरदास की सर्वाधिक प्रसिद्ध और महत्वपूर्ण रचना है। जैसे तुलसीदास जी ने रामचरितमानस की रचना की, वैसे ही सूरदास जी ने सूरसागर की रचना की। मूल रूप से इसमें सवा लाख पद होने का उल्लेख है, लेकिन वर्तमान में केवल लगभग 8,000 से 10,000 पद ही उपलब्ध हैं।
सूरसागर, सूरदास का ‘महाकाव्य’ है। यह मूलतः श्रीमद्भागवत पुराण पर आधारित है, लेकिन इसमें सूरदास ने अपनी अनुभूति और कल्पना का इतना सुंदर समन्वय किया है कि यह एक मौलिक रचना बन गई है। सूरसागर में श्रीकृष्ण की बाल लीलाओं, गोपी-प्रेम, रासलीला, उद्धव-गोपी संवाद आदि का अद्भुत वर्णन है। इसकी भाषा ब्रजभाषा है, जो मधुरता और सरलता के लिए विख्यात है।
2. सूरसारावली
सूरसारावली सूरदास की एक अन्य महत्वपूर्ण रचना है। इसमें 1,107 छंद हैं। यह रचना भी श्रीकृष्ण की लीलाओं पर आधारित है, लेकिन इसमें एक विशेष प्रकार की व्यवस्था देखने को मिलती है। इसे एक प्रबंध काव्य भी माना जा सकता है।
3. साहित्य लहरी
साहित्य लहरी में सूरदास के 118 पद संग्रहित हैं। इस रचना में सूरदास ने श्रीकृष्ण के नाना रूपों और लीलाओं का वर्णन किया है। इसमें भक्ति, श्रृंगार और दार्शनिक तत्वों का सुंदर समन्वय मिलता है। ‘साहित्य लहरी’ का अर्थ है ‘साहित्य की लहरें’।
अध्याय 4: सूरदास के काव्य की विशेषताएँ
सूरदास का काव्य भक्ति काव्य की ‘कृष्ण भक्ति शाखा’ की ‘प्रेमाश्रयी’ धारा का सर्वोत्कृष्ट उदाहरण है। उनके काव्य की प्रमुख विशेषताएँ इस प्रकार हैं:
1. बाल कृष्ण के प्रति स्नेह और माधुर्य भक्ति
सूरदास ने भगवान कृष्ण के बाल रूप को अपनी भक्ति का केंद्र बनाया। उन्होंने कृष्ण को एक सामान्य बालक के रूप में चित्रित किया है। उनके काव्य में कृष्ण की बाल सुलभ चेष्टाएँ, शरारतें, माता यशोदा के साथ मधुर झगड़े, दावत खाने की जिद, आदि का इतना मनोहारी वर्णन मिलता है कि पाठक का हृदय प्रेम से भर उठता है। यह भक्ति का ‘वात्सल्य रस’ है।
उदाहरण:
“मैया! मोहि दाऊ बहुत खिझायौ।
मोसौ कह्यौ नंदरायौ, जसोदा हरि पठवायौ काहे॥”
इस पद में कृष्ण यशोदा मैया से शिकायत कर रहे हैं कि बलराम ने उन्हें बहुत सताया है और नंदबाबा ने उनकी बात नहीं सुनी। यह एक सामान्य बालक की शिकायत जैसा लगता है।
2. श्रीकृष्ण के रूप-सौंदर्य का वर्णन
सूरदास ने श्रीकृष्ण के सौंदर्य का अद्भुत वर्णन किया है। उन्होंने कृष्ण के श्यामल वर्ण, मुस्कान, बड़ी-बड़ी आँखों, मुरली आदि का ऐसा सजीव चित्रण किया है कि वह पाठक के मन में बस जाते हैं।
3. ब्रजभाषा का मधुर प्रयोग
सूरदास ने अपने काव्य की भाषा के रूप में ब्रजभाषा को चुना। ब्रजभाषा में माधुर्य, कोमलता और सरलता का गुण विद्यमान है। सूरदास ने इसे और भी निखार दिया। उनकी भाषा अत्यंत सहज, प्रवाहमयी और संगीतात्मक है, जो सीधे हृदय में उतर जाती है।
4. संगीतात्मकता
सूरदास का प्रत्येक पद गेय है। उन्होंने अपने पदों को विभिन्न राग-रागिनियों में बाँधा है। यही कारण है कि आज भी उनके पद भारत के कोने-कोने में भजन और कीर्तन के रूप में गाए जाते हैं।
5. गोपियों का प्रेम और विरह वर्णन
सूरदास ने गोपियों के माध्यम से ‘परकीया भाव’ (पराए के प्रति प्रेम) का सुंदर चित्रण किया है। गोपियाँ कृष्ण के प्रति अनन्य प्रेम रखती हैं और उनके वियोग में व्याकुल रहती हैं। यह विरह-वर्णन जीवन के उस उच्चतम आध्यात्मिक सत्य को दर्शाता है, जहाँ जीवात्मा परमात्मा के मिलन के लिए व्याकुल रहती है।
अध्याय 5: सूरदास का साहित्य में स्थान और महत्व
सूरदास हिंदी साहित्य के भक्ति काल के स्तंभ माने जाते हैं। उनका स्थान अत्यंत ऊँचा और महत्वपूर्ण है।
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वात्सल्य रस के सम्राट: सूरदास को ‘वात्सल्य रस के सम्राट’ की उपाधि दी गई है। बाल कृष्ण के प्रति यशोदा और नंद के वात्सल्य भाव को उन्होंने जिस सूक्ष्मता और मार्मिकता से चित्रित किया है, वह विश्व साहित्य में अद्वितीय है।
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ब्रजभाषा के शिखर पुरुष: उन्होंने ब्रजभाषा को साहित्यिक गरिमा प्रदान की और उसे एक ऐसी शक्तिशाली भाषा के रूप में स्थापित किया, जो गहन से गहन भावों को अभिव्यक्त करने में सक्षम है।
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भक्ति आंदोलन के प्रणेता: सूरदास के काव्य ने समाज में भक्ति की एक नई लहर पैदा की। उन्होंने ईश्वर को एक स्नेहिल बालक और प्रेमी के रूप में प्रस्तुत करके जनसामान्य को भक्ति का एक सहज और आनंदमय मार्ग दिखाया।
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सांस्कृतिक एकता का सूत्र: उनके काव्य ने उत्तर भारत के ब्रज क्षेत्र की संस्कृति को पूरे देश में फैलाया और एक सांस्कृतिक एकता स्थापित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
सूरदास जी का देहावसान 1583 ईस्वी के आसपास पारसौली (वृंदावन) में हुआ माना जाता है।
निष्कर्ष: सूरदास की अमर विरासत
सूरदास का जीवन परिचय (Surdas Ka Jivan Parichay) हमें यह सीख देता है कि शारीरिक अक्षमताएँ मनुष्य की आंतरिक शक्तियों को बाँध नहीं सकतीं। एक ऐसे व्यक्ति, जिन्हें शारीरिक रूप से देखने की क्षमता नहीं थी, उन्होंने अपनी अंतर्दृष्टि से भगवान के दिव्य रूप का दर्शन किया और उसे इतने जीवंत शब्दों में पिरोया कि सदियाँ बीत जाने के बाद भी आज का पाठक उन लीलाओं को अपनी आँखों के सामने घटित होता हुआ महसूस करता है।
सूरदास केवल एक कवि नहीं थे; वह एक महान दार्शनिक, एक संगीतज्ञ और एक ऐसे सच्चे भक्त थे, जिन्होंने अपनी रचनाओं के माध्यम से करोड़ों लोगों के हृदयों में भक्ति की ज्योति जलाई। आज भी, वृंदावन की गलियों में, मंदिरों में और भारत के घर-घर में सूरदास के पद गूँजते हैं, जो उनकी अमरता का प्रमाण हैं। सूरदास सच्चे अर्थों में ‘सूर’ (सूर्य) थे, जिन्होंने भक्ति के आकाश को अपने ज्ञान और प्रेम के प्रकाश से सदैव के लिए प्रकाशित कर दिया।