Suryakant Tripathi Nirala ka Jivan Parichay | छायावाद के चार प्रमुख स्तंभों में

सतीश कुमार

Suryakant Tripathi Nirala ka Jivan Parichay ! हिंदी साहित्य के आकाश में जिन ध्रुव तारों का प्रकाश सदैव प्रखर बना रहेगा, उनमें सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ का नाम सर्वोपरि है। निराला सिर्फ एक कवि नहीं थे; वह एक विद्रोही, एक क्रांतिकारी, एक मानवतावादी और एक साहित्यिक योद्धा थे। छायावाद के चार प्रमुख स्तंभों में से एक, निराला ने न केवल काव्य की परंपरागत बंदिशों को तोड़ा, बल्कि सामाजिक कुरीतियों, रूढ़ियों और ढोंग के खिलाफ एक सशक्त आवाज़ भी बुलंद की। उनका जीवन एक ऐसा महाकाव्य है, जिसमें व्यक्तिगत त्रासदी, अदम्य साहस, साहित्यिक प्रतिभा और सामाजिक चेतना का अद्भुत सम्मिश्रण है।

यह लेख आपको निराला जी के जीवन के हर पहलू से रूबरू कराएगा – उनके बचपन से लेकर अंतिम समय तक। हम उनकी शिक्षा, पारिवारिक विपदाओं, साहित्यिक यात्रा, प्रमुख रचनाओं, विचारधारा और हिंदी साहित्य में उनके अमूल्य योगदान का गहन अवलोकन करेंगे।


1. प्रारंभिक जीवन और पारिवारिक पृष्ठभूमि

सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ का जन्म 21 फरवरी, 1896 (अन्य मतों के अनुसार 1897) को बंगाल की महिषादल रियासत (वर्तमान पश्चिम बंगाल के मेदिनीपुर जिले में) में हुआ था। उनके पिता का नाम पंडित रामसहाय त्रिपाठी था, जो महिषादल रियासत में एक साधारण नौकरी करते थे। निराला के जीवन पर उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि का गहरा प्रभाव पड़ा।

उनका परिवार मूल रूप से उत्तर प्रदेश के उन्नाव जिले का रहने वाला था, लेकिन रोजी-रोटी की तलाश में बंगाल आ बसा था। इस तरह, निराला के बचपन पर एक तरफ तो ब्राह्मण परिवार की सनातन संस्कृति का प्रभाव था, तो दूसरी ओर बंगाल की प्रगतिशील और साहित्यिक वायुमंडल का। यही सांस्कृतिक द्वंद्व आगे चलकर उनकी रचनाओं में स्पष्ट रूप से झलकता है।

एक बड़ा दुख यह था कि निराला की माता का देहांत उस समय हो गया था, जब वह बहुत छोटे थे। मातृ-स्नेह के अभाव ने उनके बचपन को गहरे अकेलेपन से भर दिया, एक ऐसा अकेलापन जो जीवन भर उनका साथ नहीं छोड़ा।

2. शिक्षा और बचपन का प्रभाव

निराला की प्रारंभिक शिक्षा घर पर ही संस्कृत में हुई। उनके पिता संस्कृत के विद्वान थे और चाहते थे कि उनका बेटा भी परंपरागत विद्या में निपुण हो। इसलिए, निराला ने बचपन में ही वेद, उपनिषद, रामायण, महाभारत और संस्कृत काव्य का गहन अध्ययन किया। इसने उनके भीतर भाषा और साहित्य के प्रति एक मजबूत आधार तैयार किया।

हालाँकि, उनका जीवन एक बड़े मोड़ पर तब आया जब 1903 में उनके पिता पंडित रामसहाय त्रिपाठी का भी निधन हो गया। इस घटना ने निराला को पूरी तरह से अनाथ कर दिया। पिता की मृत्यु के बाद उनकी शिक्षा में व्यवधान आ गया और उनके जीवन का संघर्ष शुरू हो गया। उन्होंने कुछ समय तक हाई स्कूल की पढ़ाई की, लेकिन इसे पूरा नहीं कर सके।

इस दौरान, उन्होंने अपने जीवनयापन के लिए छोटी-मोटी नौकरियाँ करनी शुरू कर दीं। लेकिन उनका मन हमेशा साहित्य और अध्ययन में ही रमा रहता था। वह स्वयं ही हिंदी, बांग्ला और अंग्रेजी साहित्य का अध्ययन करते रहे। यह स्वाध्याय ही उनकी वास्तविक शिक्षा का आधार बना। बंगाल में रहने के कारण उन पर रवींद्रनाथ टैगोर और बांग्ला साहित्य का गहरा प्रभाव पड़ा, जिसकी झलक बाद में उनकी कविताओं में मिलती है।

3. विवाह और पारिवारिक त्रासदी का दौर

पिता की मृत्यु के बाद परिवार के दबाव में आकर, निराला का विवाह मनोहरा देवी से कर दिया गया। यह विवाह उनकी उम्र से काफी बड़ी लड़की से हुआ था, जो एक विधवा थीं। उस जमाने में ऐसे विवाह एक सामाजिक टैबू थे, लेकिन निराला ने इसे स्वीकार किया। इस घटना ने भी उनके मन में सामाजिक रूढ़ियों के प्रति विद्रोह की भावना को और पुष्ट किया।

उनके जीवन का दुखों का पहाड़ यहीं थमा नहीं। 1918 में हैजा नामक महामारी ने उनकी पत्नी मनोहरा देवी का देहांत कर दिया। इसके बाद उनके जीवन में एक के बाद एक ऐसी त्रासदियाँ आईं कि कोई साधारण व्यक्ति टूट जाता। उनकी इकलौती बेटी सरोज का देहांत 1935 में तपेदिक (TB) के कारण हो गया। पत्नी और पुत्री की असामयिक मृत्यु ने निराला के हृदय पर गहरा घाव कर दिया। इन्हीं पारिवारिक विपदाओं और मानसिक वेदना ने उनकी कविता को एक गहन करुणा, वेदना और यथार्थ का पुट दिया। उनकी प्रसिद्ध कविता “सरोज स्मृति” उनकी पुत्री की स्मृति में लिखा गया एक अमर शोक-गीत है, जो हिंदी साहित्य की एक अनमोल निधि है।

4. साहित्यिक सफर की शुरुआत

निराला ने अपने साहित्यिक जीवन की शुरुआत बांग्ला से हिंदी में अनुवाद करके की। वह महिषादल रियासत में नौकरी करते थे, और उसी दौरान उन्होंने बांग्ला के प्रसिद्ध उपन्यासकार बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय के उपन्यास “दुर्गेश नंदिनी” का हिंदी में अनुवाद किया। इसके बाद उन्होंने रवींद्रनाथ टैगोर की कई रचनाओं का भी हिंदी में अनुवाद किया।

लेकिन निराला की असली पहचान एक मौलिक कवि के रूप में बनी। 1920 का दशक हिंदी साहित्य में छायावाद का उत्कर्ष काल था। निराला ने इस आंदोलन में सक्रिय रूप से भाग लिया और जल्द ही वह जयशंकर प्रसाद, सुमित्रानंदन पंत और महादेवी वर्मा के साथ छायावाद के चार स्तंभों में गिने जाने लगे।

उनकी पहली कविता “जूही की कली” 1920 में ‘प्रभा’ पत्रिका में प्रकाशित हुई थी। इस कविता ने हिंदी साहित्य जगत में एक नए और तेजस्वी कवि के आगमन की घोषणा कर दी। उनकी कविताओं में रहस्यवाद, प्रकृति चित्रण, कोमलकांत पदावली के साथ-साथ एक विद्रोही और मानवतावादी चेतना भी स्पष्ट दिखाई देने लगी।

5. छायावाद में निराला का स्थान और योगदान

छायावाद हिंदी साहित्य का एक ऐसा युग था जिसने रीतिकाल की बंधी-बंधाई लीक को तोड़कर कविता को नए आयाम दिए। इस युग में व्यक्तिगत भावनाओं, प्रकृति के माधुर्य और रहस्यवादी अनुभूतियों को अभिव्यक्ति मिली। निराला ने छायावाद को केवल स्वीकार ही नहीं किया, बल्कि उसे नई दिशा भी दी।

जहाँ प्रसाद, पंत और महादेवी की कविता में कोमलता और माधुर्य प्रमुख था, वहीं निराला ने उसमें ओज, विद्रोह और यथार्थ का तेजस्वी मिश्रण किया। वह छायावाद के ‘क्रांतिकारी रोमांस’ के कवि बनकर उभरे। उन्होंने छंद और भाषा की बंदिशों को तोड़ा और मुक्त छंद की ओर रुख किया, जो उनकी क्रांतिकारी सोच का प्रतीक था।

उनका मानना था कि भावनाओं की मुक्त अभिव्यक्ति के लिए कविता मुक्त होनी चाहिए। इसलिए, उन्होंने मुक्त छंद को हिंदी कविता में प्रतिष्ठित किया। उनकी कविता “वह तोड़ती पत्थर” इसका शानदार उदाहरण है, जहाँ एक सामान्य मजदूर महिला के माध्यम से उन्होंने समाज के शोषित वर्ग की पीड़ा और शक्ति को चित्रित किया है। यह कविता छायावादी कोमलता और यथार्थवाद का अद्भुत संगम है।

6. प्रमुख काव्य संग्रह और रचनाएँ

निराला की साहित्यिक साधना बहुआयामी थी। उन्होंने कविता, कहानी, उपन्यास, निबंध, आलोचना आदि सभी विधाओं में लिखा। लेकिन उनकी मुख्य पहचान एक कवि के रूप में ही है। उनके प्रमुख काव्य संग्रह हैं:

  • अनामिका (1923): यह निराला का पहला काव्य संग्रह था, जिसने उन्हें हिंदी साहित्य जगत में स्थापित किया। इसमें “जूही की कली” जैसी कविताएँ शामिल हैं।

  • परिमल (1929): इस संग्रह में निराला की कविताओं का परिपक्व रूप देखने को मिलता है। रहस्यवाद और प्रकृति चित्रण के साथ-साथ सामाजिक विषमता पर भी कविताएँ हैं।

  • गीतिका (1936): इसमें उनके गीतात्मक पक्ष की झलक मिलती है।

  • तुलसीदास (1938): यह एक खंडकाव्य है, जिसमें निराला ने तुलसीदास की आत्मकथा को एक नए अंदाज में प्रस्तुत किया है।

  • कुकुरमुत्ता (1942): इस संग्रह में निराला ने यथार्थवाद और प्रगतिवाद की ओर स्पष्ट रुख किया है। शीर्षक कविता “कुकुरमुत्ता” सामाजिक ढोंग और पाखंड पर एक करारा प्रहार है।

  • अणिमा (1943), बेला (1946), नए पत्ते (1946), आराधना (1953): उनके बाद के संग्रह हैं, जिनमें उनकी विचारधारा और अधिक परिपक्व हुई है।

कुछ अमर कविताएँ:

  • “सरोज स्मृति”: एक पिता का पुत्री के प्रति शोकाकुल हृदय की मार्मिक अभिव्यक्ति।

  • “वह तोड़ती पत्थर”: सामाजिक शोषण और स्त्री-शक्ति का प्रबल चित्रण।

  • “राम की शक्ति पूजा”: एक महाकाव्यात्मक शैली में लिखी गई कविता, जो राम और रावण के युद्ध के माध्यम से शक्ति और धर्म के दर्शन कराती है।

  • “कुकुरमुत्ता”: समाज के ढोंगी और अवसरवादी लोगों पर कठोर व्यंग्य।

  • “जागो फिर एक बार”: देशप्रेम और जन-जागरण से ओत-प्रोत एक ओजस्वी कविता।

7. गद्य साहित्य में निराला का योगदान

निराला सिर्फ कवि ही नहीं, बल्कि एक श्रेष्ठ गद्यकार भी थे। उनका गद्य उनके काव्य की तरह ही ओजस्वी, प्रखर और मौलिक है। उन्होंने उपन्यास, कहानी, निबंध और आलोचना सभी क्षेत्रों में अपनी लेखनी चलाई।

उपन्यास:

  • अप्सरा (1931)

  • अलका (1933)

  • प्रभावती (1936)

  • निरुपमा (1936)

  • चोटी की पकड़ (1946)
    इन उपन्यासों में निराला ने मध्यवर्गीय समाज के यथार्थ, नारी-जीवन की समस्याओं और सामाजिक रूढ़ियों का चित्रण किया है।

कहानी संग्रह:

  • लिली (1934)

  • चतुरी चमार (1945) – यह एक लंबी कहानी है, जिसमें एक दलित चमार woman के माध्यम से सामाजिक उत्पीड़न और उसकी चेतना को दर्शाया गया है। यह निराला की प्रगतिशील सोच का उत्कृष्ट नमूना है।

निबंध और आलोचना:

  • रवींद्र कविता कानन (1938)

  • प्रबंध पद्म (1938)

  • चाबुक (1942)

  • चयन (1956)
    उनकी आलोचनात्मक कृतियाँ उनके गहन अध्ययन और मौलिक विचारों का परिचय देती हैं।

8. निराला की विचारधारा और दर्शन

निराला का पूरा साहित्य उनकी विचारधारा का दर्पण है। वह मूलतः एक मानवतावादी थे। उनके केंद्र में सामान्य मनुष्य, उसका दुख, उसका संघर्ष और उसकी गरिमा थी। उन्होंने ईश्वर, धर्म और आडंबरों से अधिक मनुष्य के जीवन को महत्व दिया।

वह एक ऐसे समाज के निर्माण के पक्षधर थे, जहाँ समानता, स्वतंत्रता और न्याय हो। उनकी विचारधारा में समाजवाद, राष्ट्रवाद और मानवतावाद का समन्वय देखने को मिलता है। वह गांधी जी के विचारों से प्रभावित थे, लेकिन उनकी अपनी एक स्वतंत्र चिंतन धारा भी थी।

उनका दर्शन “शक्ति” और “क्रांति” में विश्वास करता था। चाहे वह राम की शक्ति पूजा हो या एक साधारण मजदूरनी का चित्रण, निराला हमेशा शोषण के खिलाफ संघर्ष और आत्मविश्वास की शक्ति का संदेश देते हैं। उनकी रचनाएँ निराशा में भी आशा का दीप जलाती हैं।

9. सामाजिक चेतना और विद्रोही स्वर

निराला का जीवन ही विद्रोह था। उन्होंने हर उस सामाजिक बंधन के खिलाफ आवाज उठाई, जो मनुष्य को बांधती है। उन्होंने जाति-पाति, ऊँच-नीच, धार्मिक पाखंड और सामंती मानसिकता का जमकर विरोध किया।

उनकी कहानी “चतुरी चमार” और कविता “वह तोड़ती पत्थर” दलितों और शोषितों के प्रति उनकी गहरी संवेदना और समर्थन को दर्शाती हैं। वह स्त्री-शिक्षा और स्त्री-स्वतंत्रता के प्रबल पक्षधर थे। उन्होंने अपनी पुत्री सरोज को उस जमाने में उच्च शिक्षा दिलवाई, जब लड़कियों की शिक्षा पर समाज की नकारात्मक सोच थी।

निराला ने साहित्य को केवल मनोरंजन का साधन नहीं, बल्कि सामाजिक परिवर्तन का हथियार माना। उनका विद्रोही स्वर उनकी भाषा और शैली में भी झलकता है। उन्होंने संस्कृतनिष्ठ हिंदी के स्थान पर सरल, व्यावहारिक और जन-सामान्य की भाषा का प्रयोग किया।

10. निराला का अंतिम समय और साहित्यिक विरासत

अपने अंतिम वर्षों में निराला गंभीर रूप से बीमार रहने लगे। उन्हें मानसिक अवसाद और आर्थिक तंगी से जूझना पड़ा। लेकिन इन सबके बावजूद, उनकी सृजनशीलता कम नहीं हुई। वह लगातार लिखते रहे।

15 अक्टूबर, 1961 को इलाहाबाद (प्रयागराज) में इस महान साहित्यकार का निधन हो गया। वह चले गए, लेकिन एक ऐसी विरासत छोड़ गए, जो हिंदी साहित्य को सदैव प्रेरित और समृद्ध करती रहेगी।

निराला की विरासत केवल उनकी रचनाओं तक सीमित नहीं है। यह उस साहस और दृढ़ संकल्प की विरासत है, जिसके साथ उन्होंने जीवन की हर चुनौती का सामना किया। वह आज भी हर उस लेखक और पाठक के लिए प्रेरणा हैं, जो सच्चाई और साहस के साथ जीना और लिखना चाहता है। भारत सरकार ने उनके सम्मान में 1976 में एक डाक टिकट भी जारी किया।

11. निष्कर्ष

सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ हिंदी साहित्य के वह सूर्य हैं, जिनकी किरणें कभी धूमिल नहीं होंगी। वह एक ऐसे युगप्रवर्तक कवि थे, जिन्होंने परंपरा और आधुनिकता, रोमांस और यथार्थ, व्यक्तिगत वेदना और सामाजिक चेतना के बीच एक सुंदर सामंजस्य स्थापित किया। उनका “जीवन परिचय” केवल घटनाओं का विवरण नहीं है; यह एक ऐसे व्यक्तित्व का दस्तावेज है, जिसने संघर्ष को साहित्य में और साहित्य को संघर्ष में बदल दिया।

उनकी रचनाएँ आज भी उतनी ही प्रासंगिक हैं, जितनी उनके समय में थीं। चाहे वह सामाजिक असमानता का सवाल हो या फिर व्यक्ति के आत्मबल की शक्ति, निराला का साहित्य हमें सोचने और संघर्ष करने की प्रेरणा देता है। वह सही अर्थों में “महाप्राण” निराला थे।


अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (FAQs)

1. निराला जी का जन्म कब और कहाँ हुआ था?
उत्तर: सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ का जन्म 21 फरवरी, 1896 को बंगाल की महिषादल रियासत (वर्तमान पश्चिम बंगाल) में हुआ था।

2. निराला जी की प्रसिद्ध कविताओं के नाम बताइए।
उत्तर: “सरोज स्मृति”, “वह तोड़ती पत्थर”, “राम की शक्ति पूजा”, “जागो फिर एक बार”, और “कुकुरमुत्ता” उनकी प्रसिद्ध कविताएँ हैं।

3. निराला जी ने हिंदी साहित्य में क्या योगदान दिया?
उत्तर: निराला जी ने छायावाद को ओज और विद्रोह का स्वर दिया, मुक्त छंद को प्रचलित किया, और सामाजिक विषमताओं को अपनी रचनाओं का विषय बनाकर हिंदी साहित्य को नई दिशा दी।

4. निराला जी की मुख्य रचनाएँ कौन-सी हैं?
उत्तर: काव्य संग्रह – ‘अनामिका’, ‘परिमल’, ‘गीतिका’, ‘कुकुरमुत्ता’। उपन्यास – ‘अलका’, ‘प्रभावती’। कहानी – ‘लिली’, ‘चतुरी चमार’।

5. निराला जी का निधन कब हुआ?
उत्तर: 15 अक्टूबर, 1961 को इलाहाबाद (प्रयागराज) में उनका निधन हुआ।

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Satish Kumar Is A Journalist With Over 10 Years Of Experience In Digital Media. He Is Currently Working As Editor At Aman Shanti, Where He Covers A Wide Variety Of Technology News From Smartphone Launches To Telecom Updates. His Expertise Also Includes In-depth Gadget Reviews, Where He Blends Analysis With Hands-on Insights.
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