Ramdhari singh dinkar jivan parichay का जीवन परिचय | Jeevan Parichay

सतीश कुमार

वह कवि जो स्वयं में एक युग था ” सिंहासन खाली करो कि जनता आती है…” ये पंक्तियाँ सुनते ही मन में एक ओज, एक विद्रोह और एक गर्व का भाव जाग उठता है। ये पंक्तियाँ हैं हिंदी साहित्य के एकमात्र ऐसे स्तंभ की, जिन्हें ‘राष्ट्रकवि’ की उपाधि से विभूषित किया गया; जो एक ही साथ वीर रस के अग्रदूत और प्रगतिशील विचारधारा के पक्षधर थे; जिनकी लेखनी में जहाँ एक ओर कुरुक्षेत्र का महाभारत जीवंत हो उठा, वहीं दूसरी ओर उर्वशी का मानवीय प्रेम भी मुखर हुआ। वे थे – रामधारी सिंह ‘दिनकर’।

इस लेख में, हम “रामधारी सिंह दिनकर जीवन परिचय” (Ramdhari Singh Dinkar Jivan Parichay) के माध्यम से न केवल उनके जन्म से लेकर मृत्यु तक के घटनाक्रम को जानेंगे, बल्कि उनके साहित्यिक व्यक्तित्व, विचारधारा के विकास, काव्य की विशेषताओं और भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन तथा स्वतंत्र भारत में उनके योगदान का गहन अध्ययन करेंगे। यह कोई सामान्य जीवन परिचय नहीं, बल्कि दिनकर जी के व्यक्तित्व और कृतित्व का एक विस्तृत और शोधपूर्ण दस्तावेज है।


अध्याय 1: प्रारंभिक जीवन और शिक्षा – एक कवि का उदय

जन्म और पारिवारिक पृष्ठभूमि

रामधारी सिंह दिनकर का जन्म 23 सितंबर, 1908 को बिहार राज्य के मुंगेर जिले में स्थित सिमरिया गाँव में हुआ था। यह गाँव गंगा नदी के किनारे बसा हुआ है, और इसकी प्राकृतिक सुंदरता ने बालक दिनकर के मन पर अमिट छाप छोड़ी। उनके पिता का नाम श्री रवि सिंह और माता का नाम श्रीमती मनरूप देवी था। उनका परिवार एक साधारण किसान परिवार था।

उनके बचपन का नाम ‘रामधारी’ रखा गया, लेकिन बाद में उन्होंने ‘दिनकर’ उपनाम स्वयं चुना, जो सूर्य का पर्यायवाची है। यह उपनाम उनके तेजस्वी और ओजस्वी व्यक्तित्व के अनुरूप ही था। जब वे मात्र दो वर्ष के थे, तभी उनकी माता का देहांत हो गया। इस tragic घटना ने उनके बचपन पर गहरा प्रभाव डाला। पिता ने दूसरी शादी कर ली, और सौतेली माँ के स्नेह ने उन्हें एक सामान्य बचपन दिया।

शिक्षा: अभावों में ज्ञान की ज्योत जलाना

दिनकर जी की प्रारंभिक शिक्षा उनके गाँव के स्कूल में हुई। वे एक मेधावी छात्र थे। प्रारंभिक शिक्षा के बाद, उन्होंने मोकामाघाट हाई स्कूल में दाखिला लिया। इस दौरान उन पर आर्थिक अभावों का साया बना रहा, लेकिन उन्होंने हिम्मत नहीं हारी। वे पैदल ही कई मील चलकर स्कूल जाया करते थे।

1928 में, उन्होंने पटना विश्वविद्यालय से इंटरमीडिएट की परीक्षा पास की। इसके बाद, उन्होंने इतिहास और दर्शनशास्त्र में स्नातक की पढ़ाई के लिए पटना कॉलेज में प्रवेश लिया। पढ़ाई के साथ-साथ, उनकी रुचि साहित्य और कविता में बढ़ने लगी। इसी दौरान वे महात्मा गांधी और स्वतंत्रता आंदोलन से प्रभावित हुए।

स्नातक की पढ़ाई पूरी करने के बाद, उन्होंने संस्कृत में एम.ए. करने का निर्णय लिया, लेकिन आर्थिक तंगी के कारण उन्हें यह पाठ्यक्रम बीच में ही छोड़ना पड़ा। हालाँकि, संस्कृत के गहन अध्ययन ने उनके भावी साहित्य में भारतीय संस्कृति और दर्शन की मजबूत नींव रख दी।


अध्याय 2: व्यावसायिक जीवन और सार्वजनिक भूमिका

अपनी शिक्षा पूरी करने के बाद, दिनकर जी ने जीवनयापन के लिए नौकरी शुरू की। उन्होंने 1934 से 1944 तक बिहार सरकार के अधीन सब-रजिस्ट्रार के पद पर कार्य किया। यह नौकरी उनके लिए स्थिरता लेकर आई, लेकिन उनका मन तो साहित्य सृजन में ही रमता था।

1944 में, उन्होंने सरकारी नौकरी छोड़ दी और बंगला से हिंदी में अनुवाद का कार्य शुरू किया। उनकी लेखन क्षमता और ख्याति को देखते हुए, 1950 में उन्हें भागलपुर विश्वविद्यालय में हिंदी के विभागाध्यक्ष के रूप में नियुक्त किया गया। उन्होंने यहाँ अध्यापन कार्य किया और छात्रों को प्रेरित किया।

दिनकर जी की प्रतिभा को राष्ट्रीय स्तर पर मान्यता मिली और उन्हें विभिन्न महत्वपूर्ण पदों पर नियुक्त किया गया:

  • 1952 से 1964: वे राज्यसभा के सदस्य (Member of Parliament) मनोनीत किए गए। संसद में उनके भाषण साहित्यिक और विचारपूर्ण हुआ करते थे।

  • 1964 से 1965: उन्हें भारत सरकार द्वारा हिंदी सलाहकार के पद पर नियुक्त किया गया।

  • 1965 से 1971: उन्होंने भागलपुर विश्वविद्यालय के उप-कुलपति (Vice-Chancellor) के रूप में कार्य किया।

इन पदों पर रहते हुए भी, उनका मुख्य फोकस साहित्य सृजन ही बना रहा। उन्होंने अपने लेखन और भाषणों के माध्यम से राष्ट्रीय और सामाजिक मुद्दों पर सार्थक चर्चा को बढ़ावा दिया।


अध्याय 3: साहित्यिक यात्रा: वीर रस से लेकर श्रृंगार रस तक

दिनकर जी की साहित्यिक यात्रा अत्यंत विस्तृत और बहुआयामी है। उन्होंने कविता, महाकाव्य, निबंध, आलोचना, और अनुवाद सहित साहित्य की विविध विधाओं में अपनी अमिट छाप छोड़ी। उनके साहित्यिक विकास को मोटे तौर पर तीन चरणों में बाँटा जा सकता है।

प्रथम चरण: राष्ट्रीयता और ओज का युग (1920-1940)

यह वह दौर था जब भारत स्वतंत्रता के लिए संघर्ष कर रहा था। दिनकर जी इस आंदोलन से गहरे तक प्रभावित थे और उनकी कविताएँ देशभक्ति और क्रांति की ज्वाला से जल उठीं। इस दौर की प्रमुख रचनाएँ हैं:

  • रेनुसागर (1928): यह उनका प्रथम काव्य संग्रह था, जिसमें प्रकृति और राष्ट्रभक्ति के स्वर मुखर हुए।

  • हुंकार (1938): यह संग्रह उन्हें राष्ट्रीय स्तर पर प्रसिद्धि दिलाने वाला स्तंभ बना। “हुंकार” में ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ ज्वलंत विद्रोह की अभिव्यक्ति है।

  • रसवंती (1939): इसमें श्रृंगार रस की कविताएँ भी शामिल हैं, जो उनके बहुमुखी प्रतिभा का परिचय देती हैं।

द्वितीय चरण: मानवतावाद और प्रगतिशील विचारधारा (1940-1955)

इस चरण में दिनकर जी का रुझान मार्क्सवाद और प्रगतिशील विचारधारा की ओर हुआ। वे आम आदमी के दर्द, शोषण और सामाजिक विषमताओं को लेकर चिंतित दिखाई देते हैं। इसी दौरान उनकी दो सर्वाधिक चर्चित महाकाव्यात्मक कृतियाँ लिखी गईं:

  • कुरुक्षेत्र (1946): महाभारत के युद्ध के बाद के संवादों पर आधारित यह महाकाव्य, युद्ध और शांति के दर्शन को प्रस्तुत करता है। यह न केवल एक साहित्यिक कृति है, बल्कि एक दार्शनिक ग्रंथ भी है।

  • उर्वशी (1961): यह दिनकर जी की काव्य-यात्रा का एक नया शिखर है। पुराणों में वर्णित अप्सरा उर्वशी और पुरुरवा के प्रेम प्रसंग को आधार बनाकर रचित इस खंडकाव्य में उन्होंने मानवीय प्रेम, वासना और त्याग का अद्भुत मनोवैज्ञानिक चित्रण किया। इसी कृति के लिए उन्हें 1962 में भारत के सर्वोच्च साहित्यिक पुरस्कार ‘ज्ञानपीठ पुरस्कार’ से सम्मानित किया गया।

तृतीय चरण: नैतिकता और भारतीय चिंतन की ओर लौट (1955-1974)

अपने जीवन के अंतिम दशकों में, दिनकर जी फिर से भारतीय दर्शन, नैतिक मूल्यों और सांस्कृतिक विरासत की ओर उन्मुख हुए। उनकी रचनाओं में गहरा दार्शनिक पुट आ गया।

  • परशुराम की प्रतीक्षा (1963)

  • हारे को हरिनाम (1970)

  • दिनकर की डायरी (1973)


अध्याय 4: प्रमुख काव्य संग्रह और गद्य साहित्य

दिनकर जी एक विपुल लेखक थे। उनकी प्रमुख रचनाओं की सूची निम्नलिखित है:

काव्य संग्रह:

  1. प्रणभंग (1929)

  2. रेनुसागर (1930)

  3. हुंकार (1938)

  4. रसवंती (1939)

  5. द्वंद्वगीत (1940)

  6. कुरुक्षेत्र (1946)

  7. धूप-छाँव (1946)

  8. सामधेनी (1947)

  9. बापू (1947)

  10. दशरथ नंदन (1951)

  11. रश्मिरथी (1952)

  12. नीम के पत्ते (1954)

  13. नील कुसुम (1954)

  14. सूरज का ब्याह (1955)

  15. चक्रवाल (1956)

  16. कोयला और कवित्व (1964)

  17. मृत्तितिलक (1964)

  18. दिनकर की सूक्तियाँ (1964)

  19. हारे को हरिनाम (1970)

  20. संचियता (1973)

गद्य साहित्य:

दिनकर जी ने गद्य में भी उत्कृष्ट रचनाएँ कीं, जो मुख्यतः निबंध, आलोचना और विचारपरक लेखन के रूप में हैं।

  • मिट्टी की ओर (1946)

  • अर्धनारीश्वर (1952)

  • रेत (1954)

  • उजली आग (1956)

  • संस्कृति के चार अध्याय (1956) – यह एक मौलिक ग्रंथ है, जिसमें उन्होंने भारतीय संस्कृति के विकास को चार चरणों में विश्लेषित किया है।

  • वट पीपल (1957)

  • काव्य की भूमिका (1958)

  • शुद्ध कविता की खोज (1966)

  • साहित्यमुखी (1968)


अध्याय 5: भाव-पक्ष और कला-पक्ष: दिनकर के काव्य का विश्लेषण

भाव-पक्ष (Content and Themes)

  1. राष्ट्रीय भावना: दिनकर जी के काव्य का सबसे प्रबल स्वर राष्ट्रप्रेम है। ‘हुंकार’ और ‘रश्मिरथी’ जैसी रचनाओं में यह स्वर चरम पर है।

  2. विद्रोह की भावना: वे शोषण और अन्याय के खिलाफ विद्रोह के कवि हैं। उनकी कविताएँ जनता को जागृत करने और संघर्ष के लिए प्रेरित करने का कार्य करती हैं।

  3. मानवतावाद: उनकी कविता किसी एक वर्ग या जाति तक सीमित नहीं है। वे सम्पूर्ण मानव जाति के कल्याण की बात करते हैं।

  4. ऐतिहासिक और पौराणिक चेतना: उन्होंने इतिहास और पुराणों से प्रेरणा लेकर उनमें समकालीन relevance ढूँढी। कुरुक्षेत्र और रश्मिरथी इसके श्रेष्ठ उदाहरण हैं।

  5. प्रगतिशील विचारधारा: सामाजिक असमानता, शोषण और नारी-उत्पीड़न के विरुद्ध उनकी कलम सदैव सक्रिय रही।

  6. श्रृंगार रस: ‘उर्वशी’ और ‘रसवंती’ जैसी रचनाएँ उनकी श्रृंगारिक प्रतिभा का परिचय देती हैं, जहाँ प्रेम को एक दार्शनिक और मनोवैज्ञानिक आयाम मिला है।

कला-पक्ष (Stylistic Features)

  1. ओजगुण: दिनकर जी की कविता का सबसे प्रमुख गुण ओज है। उनकी भाषा में एक तेज और प्रभावशाली शक्ति है जो पाठक के मन को झंकृत कर देती है।

  2. भाषा-शैली: उन्होंने खड़ी बोली हिंदी को अपनाया, लेकिन उसमें संस्कृत के तत्सम शब्दों का प्रयोग करके एक गंभीर और प्रभावशाली शैली का निर्माण किया।

  3. छंद और अलंकार: उन्होंने मुक्तछंद और परंपरागत छंद दोनों का सफलतापूर्वक प्रयोग किया है। अलंकारों का प्रयोग भी स्वाभाविक और प्रभावी है।

  4. प्रतीक और बिंब: उन्होंने सूर्य, अग्नि, सिंह, वज्र आदि प्रतीकों का बार-बार प्रयोग करके अपने काव्य को अद्भुत ऊर्जा और चित्रात्मकता प्रदान की है।


अध्याय 6: पुरस्कार और सम्मान

रामधari सिंह दिनकर को उनके साहित्यिक योगदान के लिए अनेक प्रतिष्ठित पुरस्कारों और सम्मानों से नवाजा गया:

  • ज्ञानपीठ पुरस्कार (1972): ‘उर्वशी’ काव्य के लिए, हिंदी साहित्य का सर्वोच्च सम्मान।

  • पद्म भूषण (1959): भारत सरकार द्वारा दिया जाने वाला तीसरा सर्वोच्च नागरिक सम्मान।

  • साहित्य अकादमी पुरस्कार (1959): ‘संस्कृति के चार अध्याय’ ग्रंथ के लिए।

  • उत्तर प्रदेश सरकार का संस्कृति पुरस्कार (1968)

  • डी.लिट. (मानद उपाधि): कई विश्वविद्यालयों जैसे पटना विश्वविद्यालय और भागलपुर विश्वविद्यालय द्वारा।


अध्याय 7: दिनकर की विरासत और महत्व

24 अप्रैल, 1974 को इस महान साहित्य सृजनहार का निधन हो गया। लेकिन उनकी कविताएँ और विचार आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं।

दिनकर जी का महत्व इस बात में है कि उन्होंने हिंदी कविता को केवल भावुकता के दायरे से निकालकर विचार और दर्शन के उच्च स्तर तक पहुँचाया। वे एक ऐसे कवि थे जो जनता के बीच खड़े होकर बोलते थे। आज भी, जब भी देशभक्ति, सामाजिक न्याय या मानवीय संघर्ष की बात आती है, दिनकर की पंक्तियाँ हमारी आवाज बन जाती हैं।

उनकी रचनाएँ न केवल साहित्यप्रेमियों, बल्कि राजनेताओं, सामाजिक कार्यकर्ताओं और युवाओं के लिए भी प्रेरणा का स्रोत हैं। भारतीय संसद में आज भी उनकी कविताओं को उद्धृत किया जाता है।

उनके व्यक्तित्व और कृतित्व पर और अधिक जानकारी के लिए आप इन authoritative स्रोतों को भी देख सकते हैं:

  1. भारतीय साहित्य संग्रह – अकादमी – साहित्य अकादमी का आधिकारिक पृष्ठ जहाँ दिनकर जी की रचनाएँ और उनके बारे में जानकारी उपलब्ध है।

  2. राज्यसभा की आधिकारिक वेबसाइट – यहाँ आपको दिनकर जी के संसदीय भाषणों और योगदान के बारे में ऐतिहासिक दस्तावेज मिल सकते हैं।

  3. ज्ञानपीठ पुरस्कार – ज्ञानपीठ पुरस्कार विजेताओं की सूची और दिनकर जी के बारे में विवरण।


निष्कर्ष: अमर दिनकर

रामधारी सिंह ‘दिनकर’ कोई साधारण कवि नहीं थे। वे एक विचारक, दार्शनिक, इतिहासकार और राष्ट्रनिर्माता थे, जिन्होंने अपनी कलम को समय की आवश्यकता के अनुसार चलाया। उनका साहित्य भारतीय जनमानस का दर्पण है, जिसमें हम अपने अतीत का गौरव, वर्तमान का संघर्ष और भविष्य का स्वप्न एक साथ देख सकते हैं। “रामधारी सिंह दिनकर जीवन परिचय” के इस विस्तृत अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि वे सच्चे अर्थों में एक ‘युगवाणी’ के कवि थे, जिनकी प्रासंगिकता सदैव बनी रहेगी। जब तक सूरज चमकता रहेगा और लोग स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करते रहेंगे, दिनकर का ओजस्वी स्वर उनका मार्गदर्शन करता रहेगा।

Share This Article
Satish Kumar Is A Journalist With Over 10 Years Of Experience In Digital Media. He Is Currently Working As Editor At Aman Shanti, Where He Covers A Wide Variety Of Technology News From Smartphone Launches To Telecom Updates. His Expertise Also Includes In-depth Gadget Reviews, Where He Blends Analysis With Hands-on Insights.
Leave a Comment

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *