maithili sharan gupt ka sahityik parichay : एक साहित्यिक परिचय

सतीश कुमार

Maithili sharan gupt ka sahityik parichay ! हिंदी साहित्य के इतिहास में कुछ ऐसे महान स्तंभ हैं जिन्होंने न केवल अपने युग को प्रभावित किया, बल्कि आने वाली पीढ़ियों के लिए एक नई दिशा का सूत्रपात किया। ऐसे ही एक युगपुरुष, युगप्रवर्तक और राष्ट्रकवि थे – आचार्य मैथिलीशरण गुप्त। जब भी हिंदी काव्य के दोहों, चौपाइयों और खड़ी बोली के माधुर्य की चर्चा होगी, ‘गुप्त जी’ का नाम सर्वप्रथम लिया जाएगा।

“कौन कहता है आसमां में सुराख हो नहीं सकता,
एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो।”

ये पंक्तियाँ आज भी लाखों लोगों के लिए प्रेरणा का स्रोत हैं, और ये इसी महान साहित्यकार की देन हैं। उन्होंने खड़ी बोली को काव्य की भाषा के रूप में स्थापित करने में अभूतपूर्व योगदान दिया और भारतीय जनमानस को राष्ट्रीयता, नैतिकता और आदर्शवाद की नई परिभाषा दी। यह लेख आपको मैथिलीशरण गुप्त के साहित्यिक जगत की एक संपूर्ण यात्रा पर ले जाएगा, जहाँ हम उनके जीवन, कृतित्व, दर्शन और हिंदी साहित्य में अमर योगदान का गहन अवलोकन करेंगे।


1. प्रस्तावना: युग के प्रवर्तक

मैथिलीशरण गुप्त का जन्म ऐसे समय में हुआ जब भारत एक गहन राजनीतिक और सामाजिक परिवर्तन के दौर से गुजर रहा था। 19वीं सदी का उत्तरार्द्ध और 20वीं सदी का प्रारंभ भारतीय पुनर्जागरण का काल था। इसी दौर में हिंदी साहित्य ने भी एक नया मोड़ लिया। ब्रजभाषा का वर्चस्व कम हो रहा था और खड़ी बोली अपने काव्य-रूप में परिवर्धित हो रही थी। इस संक्रमण काल में गुप्त जी वह सेतु बने जिन्होंने पारंपरिक भारतीय मूल्यों को आधुनिक राष्ट्रीय चेतना से जोड़ा। उनका साहित्य केवल मनोरंजन का साधन नहीं, बल्कि समाज का दर्पण, मार्गदर्शक और प्रेरक था। वे ‘द्विवेदी युग’ के प्रमुख स्तंभकार थे, जिसे हिंदी साहित्य का ‘जागरण काल’ भी कहा जाता है। उन्होंने पौराणिक और ऐतिहासिक चरित्रों को नए संदर्भों में प्रस्तुत करके उन्हें वर्तमान के लिए प्रासंगिक बना दिया।

2. प्रारंभिक जीवन और शिक्षा-दीक्षा

मैथिलीशरण गुप्त का जन्म 3 अगस्त, 1886 को उत्तर प्रदेश के झाँसी जिले के चिरगाँव नामक एक छोटे से गाँव में एक वैश्य परिवार में हुआ था। उनके पिता श्री रामचरण गुप्त एक धर्मनिष्ठ और साहित्य-प्रेमी व्यक्ति थे, जबकि उनकी माता श्रीमती काशीबाई एक सरल और धार्मिक महिला थीं। परिवार में साहित्यिक वातावरण था, और इसका प्रभाव बालक मैथिलीशरण पर पड़ा।

उनकी प्रारंभिक शिक्षा घर पर ही हुई। उन्होंने संस्कृत, बंगाली और अंग्रेजी का ज्ञान भी अर्जित किया। हालाँकि, औपचारिक शिक्षा में उनकी विशेष रुचि नहीं थी और वे मैट्रिक की परीक्षा में बैठे ही नहीं। इसके पीछे उनकी साहित्य के प्रति गहन लगन और स्वतंत्र अध्ययन की प्रवृत्ति थी। उन्होंने घर पर रहकर ही रामायण, महाभारत, भागवत जैसे ग्रंथों का गहन अध्ययन किया, जिसने उनके भावी साहित्य की नींव रखी।

उनके साहित्यिक जीवन में सबसे महत्वपूर्ण मोड़ तब आया जब वे हिंदी के महान साहित्यकार और समालोचक महावीर प्रसाद द्विवेदी के संपर्क में आए। द्विवेदी जी ने युवा मैथिलीशरण की प्रतिभा को पहचाना और उन्हें सही दिशा दिखाई। द्विवेदी जी के मार्गदर्शन में ही गुप्त जी ने खड़ी बोली में काव्य रचना को अपना लक्ष्य बनाया और ‘सरस्वती’ पत्रिका के माध्यम से उनकी रचनाएँ जन-जन तक पहुँचनी शुरू हुईं। यह गुरु-शिष्य की परंपरा की एक अद्भुत मिसाल थी।

3. साहित्यिक पृष्ठभूमि और प्रभाव

गुप्त जी के साहित्य पर कई प्रभाव स्पष्ट रूप से दिखाई देते हैं। सबसे पहला और गहरा प्रभाव था भारतीय पौराणिक एवं धार्मिक साहित्य का। वाल्मीकि, वेदव्यास, कालिदास और तुलसीदास जैसे महाकवियों की छाप उनकी रचनाओं में साफ झलकती है। उन्होंने इन महान ग्रंथों के आधार पर ही नए युग के अनुरूप अपनी काव्य-यात्रा शुरू की।

दूसरा सबसे बड़ा प्रभाव था महावीर प्रसाद द्विवेदी का। द्विवेदी जी ने न केवल उनकी भाषा को शुद्ध और परिष्कृत किया, बल्कि उनमें राष्ट्रभक्ति और समाज सुधार की भावना को भी प्रबल बनाया। द्विवेदी युग की ‘उपदेशात्मकता’ और ‘आदर्शवादिता’ गुप्त जी के काव्य का केंद्रीय स्वर बनी।

तीसरा प्रभाव था तत्कालीन राष्ट्रीय आंदोलन का। महात्मा गांधी, लोकमान्य तिलक और अन्य स्वतंत्रता सेनानियों के विचारों ने उनके मन पर गहरी छाप छोड़ी। उनकी ‘भारत-भारती’ जैसी रचना इसी राष्ट्रीय जागरण की उपज है। इसके अलावा, बंगाल के पुनर्जागरण और रवींद्रनाथ टैगोर के साहित्य ने भी उनके चिंतन को प्रभावित किया।

4. मैथिलीशरण गुप्त की प्रमुख रचनाएँ: एक विस्तृत विवेचन

गुप्त जी एक अत्यंत सर्जनशील रचनाकार थे। उन्होंने महाकाव्य, खंडकाव्य, नाटक, गीतिकाव्य आदि विविध विधाओं में रचना की। आइए, उनकी प्रमुख रचनाओं का गहनता से अध्ययन करते हैं।

4.1. भारत-भारती (1912)

यह गुप्त जी की सर्वाधिक चर्चित और क्रांतिकारी रचना है, जिसने उन्हें राष्ट्रीय स्तर पर प्रसिद्धि दिलाई। यह रचना भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान एक राष्ट्रीय गीत के रूप में उभरी। यह तीन भागों में विभाजित है: अतीत का वैभव, वर्तमान की दशा और भविष्य का स्वप्न।

  • अतीत का वैभव: इस भाग में कवि ने भारत के गौरवमयी अतीत, वैज्ञानिक उन्नति, दार्शनिक चिंतन और सांस्कृतिक विरासत का वर्णन किया है। वह भारत को ‘विश्व गुरु’ के रूप में प्रस्तुत करते हैं।

  • वर्तमान की दशा: इस भाग में देश की दयनीय स्थिति, गुलामी की बेड़ियों, सामाजिक कुरीतियों और नैतिक पतन का मार्मिक चित्रण है। यह भाग जनमानस में आत्म-विश्लेषण की भावना जगाता है।

  • भविष्य का स्वप्न: यह भाग आशा और आत्मविश्वास से परिपूर्ण है। इसमें कवि एक स्वतंत्र, समृद्ध और आदर्श भारत के निर्माण का स्वप्न देखता है और देशवासियों से उसके लिए प्रयत्नशील होने का आह्वान करता है।

प्रसिद्ध पंक्तियाँ:

“हम कौन थे, क्या हो गए हैं और क्या होंगे अभी,
आओ विचारें आज मिलकर यह समस्याएँ सभी।”

“अभी न होंगे हम इसको कहने में क्या संकोच,
समझो तो आदरणीय हैं, नहीं तो पत्थर हैं मूँच।”

4.2. साकेत (1931)

‘साकेत’ गुप्त जी का महाकाव्य है और हिंदी साहित्य की एक अमर कृति। यह वाल्मीकि रामायण पर आधारित है, लेकिन इसमें गुप्त जी ने पारंपरिक कथा को एक नए दृष्टिकोण से प्रस्तुत किया है। इस महाकाव्य की सबसे बड़ी विशेषता है उर्मिला चरित्र का मार्मिक और पुनर्सृजित चित्रण। वाल्मीकि और तुलसीदास की रामायण में उर्मिला एक गौण पात्र हैं, लेकिन गुप्त जी ने उन्हें इस महाकाव्य की नायिका बना दिया।

  • उर्मिला का चरित्र-चित्रण: गुप्त जी ने उर्मिला के त्याग, वैधव्य के दुःख, प्रेम और कर्तव्यपरायणता का इतना गहन और मनोवैज्ञानिक चित्रण किया है कि वह साहित्य की एक अविस्मरणीय नारी छवि बन गई हैं। उनकी वेदना को इन पंक्तियों में देखा जा सकता है:

    “चारु चंद्र की चंचल किरणें, खेल रही हैं जल थल में,
    स्वच्छ चाँदनी बिछी हुई है, अवनि और अम्बर तल में।
    उर्मिला भी उसी प्रकार से, व्याप्त हुई विरह जल में।”

  • आधुनिक दृष्टिकोण: इस महाकाव्य में राम के आदर्शवाद के साथ-साथ मानवीय संवेदनाओं को भी स्थान दिया गया है। लक्ष्मण और उर्मिला का प्रेम, उनका विरह-वेदना, सभी कुछ इतना यथार्थपूर्ण और मार्मिक है कि पाठक स्वयं को उस भावनात्मक यात्रा का हिस्सा महसूस करता है।

4.3. यशोधरा (1932)

यह गुप्त जी का एक और खंडकाव्य है जो बौद्ध दर्शन और इतिहास पर आधारित है। इसमें उन्होंने महात्मा बुद्ध की पत्नी यशोधरा के दृष्टिकोण से कथा को प्रस्तुत किया है। जब सिद्धार्थ गृहत्याग कर ज्ञान की खोज में निकलते हैं, तो पीछे छूट जाती हैं यशोधरा। यह काव्य यशोधरा की वेदना, उनके प्रश्नों, उनके आक्रोश और अंततः उनकी आत्मिक शांति की कहानी है।

गुप्त जी ने नारी-हृदय की पीड़ा को बहुत ही संवेदनशीलता के साथ चित्रित किया है। यशोधरा का चरित्र केवल एक परित्यक्ता नारी का नहीं, बल्कि एक ऐसी नारी का है जो अपने प्रेम और कर्तव्य के बीच फँसकर भी आखिरकार एक व्यापक दर्शन और शांति को प्राप्त करती है। यह रचना गुप्त जी की नारी-विमर्श संबंधी गहरी समझ को दर्शाती है।

4.4. पंचवटी (1925)

यह गुप्त जी का एक लोकप्रिय खंडकाव्य है जो रामायण के वनवास प्रसंग पर आधारित है। इसमें पंचवटी में राम-सीता-लक्ष्मण के जीवन, सीता-हरण और राम-रावण युद्ध की कथा है। हालाँकि, गुप्त जी ने इसमें भी पारंपरिक कथा से हटकर मानवीय संवेदनाओं पर अधिक बल दिया है। सीता का चरित्र, उनकी लालसाएँ, और वनवास के कष्टों का वर्णन बहुत ही मार्मिक ढंग से किया गया है।

4.5. जयभारत (1912)

‘भारत-भारती’ की तरह यह भी एक राष्ट्रभक्तिपूर्ण काव्य है। इसमें भारत की गौरवगाथा, वीरों की कथाएँ और देशप्रेम की भावना को प्रबल स्वर मिला है। यह रचना भी स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान अत्यंत लोकप्रिय हुई।

4.6. अन्य महत्वपूर्ण रचनाएँ

गुप्त जी की रचनाओं का भंडार अत्यंत विशाल है। उनकी अन्य उल्लेखनीय रचनाएँ हैं:

  • जयद्रथ वध: महाभारत के एक प्रसंग पर आधारित।

  • विष्णुप्रिया: चैतन्य महाप्रभु की पत्नी विष्णुप्रिया के जीवन पर आधारित।

  • सिद्धराज: ऐतिहासिक नाटक।

  • रंग में भंग: सामाजिक नाटक।

  • नहुष: पौराणिक नाटक।

  • काबा और कर्बला: इस्लामिक इतिहास पर आधारित, जो उनकी सर्वधर्म-समभाव की भावना को दर्शाता है।

  • गुरुकुल: शिक्षा पद्धति पर एक रचना।

5. गुप्त जी की भाषा-शैली और काव्यगत विशेषताएँ

गुप्त जी की सबसे बड़ी देन है खड़ी बोली को काव्य की सशक्त भाषा के रूप में प्रतिष्ठित करना। उनसे पहले खड़ी बोली को गद्य तक ही सीमित माना जाता था, लेकिन गुप्त जी ने सिद्ध कर दिया कि खड़ी बोली में भी ब्रजभाषा जैसा माधुर्य, प्रवाह और ओज पैदा किया जा सकता है।

भाषागत विशेषताएँ:

  • शुद्ध और परिष्कृत खड़ी बोली: उनकी भाषा संस्कृतनिष्ठ, परिष्कृत और प्रवाहमयी है।

  • उर्दू-फारसी शब्दों का अभाव: द्विवेदी युग की विशेषता के अनुरूप, उन्होंने अपनी भाषा से उर्दू-फारसी के शब्दों को लगभग हटा दिया और तत्सम तद्भव शब्दों का प्रयोग किया।

  • मुहावरों और लोकोक्तियों का प्रयोग: उन्होंने जनभाषा के मुहावरों और कहावतों को अपनाकर अपनी भाषा को सजीव और प्रभावशाली बनाया।

शैलीगत विशेषताएँ:

  • वर्णनात्मक शैली: उनके महाकाव्यों और खंडकाव्यों में प्रकृति, चरित्र और दृश्यों का अत्यंत सजीव वर्णन मिलता है।

  • आख्यान शैली: उनकी रचनाओं में कथा कहने का ढंग बहुत ही रोचक और प्रवाहपूर्ण है।

  • उद्बोधन शैली: ‘भारत-भारती’ जैसी रचनाओं में उन्होंने उद्बोधन शैली को अपनाया है, जिससे पाठक सीधे जुड़ाव महसूस करता है।

  • गीति-शैली: उनके गीतों में एक विशेष प्रकार का लय और संगीतात्मकता है।

काव्यगत विशेषताएँ:

  • राष्ट्रीय भावना: उनके काव्य का मुख्य स्वर राष्ट्रप्रेम और देशभक्ति है।

  • नैतिकता और आदर्शवाद: उनकी रचनाओं में नैतिक शिक्षा और आदर्शवाद की प्रधानता है।

  • ऐतिहासिक और पौराणिक पुनर्व्याख्या: उन्होंने पुरानी कथाओं को नए दृष्टिकोण से प्रस्तुत करके उन्हें वर्तमान के लिए प्रासंगिक बनाया।

  • मानवतावाद: उनका साहित्य सभी धर्मों और जातियों के प्रति समभाव का संदेश देता है।

6. गुप्त जी के साहित्य में राष्ट्रीय चेतना और समाज सुधार

गुप्त जी केवल कवि ही नहीं, एक समाज सुधारक भी थे। उनका सारा साहित्य एक सकारात्मक सामाजिक परिवर्तन की अभिलाषा से ओत-प्रोत है।

  • राष्ट्रीय चेतना: उन्होंने भारत के गौरवशाली अतीत का बखान करके देशवासियों में आत्म-गौरव की भावना जगाई। उन्होंने देशप्रेम, बलिदान और स्वतंत्रता के लिए संघर्ष को अपने काव्य का विषय बनाया। उनकी रचनाएँ स्वतंत्रता सेनानियों के लिए प्रेरणा का स्रोत थीं।

  • समाज सुधार: गुप्त जी ने अपने साहित्य के माध्यम से छुआछूत, जातिवाद, नारी शिक्षा के विरोध और सामाजिक कुरीतियों पर करारा प्रहार किया। उन्होंने नारी को समाज में सम्मानजनक स्थान दिलाने का प्रयास किया। उनके नारी पात्र – सीता, उर्मिला, यशोधरा – केवल पतिव्रता नहीं, बल्कि विचारशील, संवेदनशील और आत्मबल से परिपूर्ण नारियाँ हैं। उन्होंने विधवा-विवाह और नारी शिक्षा का समर्थन किया।

7. गुप्त जी के साहित्य में नारी चरित्रों का मनोवैज्ञानिक चित्रण

जैसा कि पहले उल्लेख किया गया है, गुप्त जी की सबसे बड़ी उपलब्धियों में से एक है नारी चरित्रों का गहन मनोवैज्ञानिक चित्रण। वह नारी को देवी या दासी के रूप में नहीं, बल्कि एक संपूर्ण मानवी के रूप में देखते हैं। उनकी नारी पात्रों के मन में प्रेम है, तो वेदना भी है; त्याग है, तो आक्रोश भी है; धैर्य है, तो प्रश्न भी हैं। उर्मिला का विरह, यशोधरा का पति-त्याग के प्रति आक्रोश और अंततः आत्मसात, सीता की वनवास के दौरान मानसिक यंत्रणा – ये सभी चित्रण नारी-मन की गहराइयों तक उतरते हैं।

8. पुरस्कार, सम्मान और ‘राष्ट्रकवि’ की उपाधि

मैथिलीशरण गुप्त के साहित्यिक योगदान को देखते हुए उन्हें अनेक पुरस्कारों और सम्मानों से नवाजा गया।

  • हिंदी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग द्वारा ‘राष्ट्रकवि’ की उपाधि: यह उपाधि उन्हें सर्वप्रथम 1932 में मिली और तब से वह इसी नाम से जाने जाते हैं।

  • पद्मभूषण (1954): भारत सरकार द्वारा उन्हें साहित्यिक सेवाओं के लिए यह तीसरा सर्वोच्च नागरिक सम्मान प्रदान किया गया।

  • राज्यसभा सदस्यता (1952): उन्हें भारत की संसद के उच्च सदन, राज्यसभा के लिए मनोनीत किया गया। यह उनके प्रतिष्ठा का प्रमाण था।

  • साहित्य अकादमी पुरस्कार: उनकी रचना ‘भारत-भारती’ को साहित्य अकादमी द्वारा सम्मानित किया गया।

9. हिंदी साहित्य में मैथिलीशरण गुप्त का स्थान और योगदान

हिंदी साहित्य के इतिहास में मैथिलीशरण गुप्त का स्थान अत्यंत ऊँचा और अविस्मरणीय है।

  1. खड़ी बोली के प्रथम महाकवि: उन्होंने खड़ी बोली को महाकाव्य और गंभीर काव्य रचना के योग्य बनाया। वे खड़ी बोली के पहले सफल और श्रेष्ठ महाकवि माने जाते हैं।

  2. द्विवेदी युग के स्तंभ: महावीर प्रसाद द्विवेदी के साथ मिलकर उन्होंने हिंदी साहित्य में आदर्शवाद, नैतिकता और भाषा की शुद्धता का नया युग प्रारंभ किया।

  3. राष्ट्रीय काव्यधारा के प्रवर्तक: उन्होंने अपने काव्य के माध्यम से राष्ट्रीय भावना को जन-जन तक पहुँचाया और स्वतंत्रता आंदोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

  4. पौराणिक कथाओं के नवीन व्याख्याकार: उन्होंने पुराणों और इतिहास को आधुनिक संदर्भ में प्रस्तुत करके उन्हें नया जीवन दिया।

  5. नारी-विमर्श के अग्रदूत: उन्होंने साहित्य में नारी चरित्रों को एक नई पहचान और गरिमा प्रदान की, जो आगे चलकर नारी-विमर्श का आधार बनी।

उनके कार्यों का अध्ययन करने के लिए, भारतीय साहित्य अकादमी का संग्रह एक उत्कृष्ट संसाधन है। भारतीय साहित्य अकादमी की आधिकारिक वेबसाइट पर जाकर आप उनकी रचनाओं और उन पर हुए शोध के बारे में और जान सकते हैं।

10. उपसंहार: एक अमर विरासत

12 दिसंबर, 1964 को इस महान साहित्यस्रष्टा का निधन हो गया, लेकिन वह अपनी रचनाओं के माध्यम से आज भी हमारे बीच जीवित हैं। मैथिलीशरण गुप्त ने जो साहित्यिक विरासत छोड़ी है, वह न केवल हिंदी साहित्य, बल्कि समस्त भारतीय साहित्य की अमूल्य धरोहर है। वे एक ऐसे युगबोध संपन्न कवि थे जिन्होंने परंपरा और आधुनिकता के बीच सामंजस्य स्थापित किया। उनका साहित्य आज भी उतना ही प्रासंगिक है जितना उनके समय में था। राष्ट्रप्रेम, नैतिक मूल्य, सामाजिक समरसता और मानवीय संवेदनाओं का उनका संदेश आज के इस भौतिकवादी और अशांत युग में और भी अधिक महत्वपूर्ण हो गया है।

उनकी कविताएँ केवल पाठ्यपुस्तकों की सीमा में नहीं बँधी, बल्कि जन-जन के हृदय में बस गईं। वह सच्चे अर्थों में ‘राष्ट्रकवि’ थे, जिनकी वाणी में समस्त राष्ट्र की आत्मा बोलती थी। उनका यही कथन उनके अपने जीवन और साहित्य का सार है:

“है आसक्ति क्षेत्र में अपने अब तक जिसके अंकुर,
वह मरते दम तक भी क्या भूमि करेगी शस्य-श्यामल?”

मैथिलीशरण गुप्त ने अपने जीवन की सारी आसक्ति इस देश और इसकी संस्कृति के क्षेत्र में लगा दी, और इसी कारण आज भी हमारा साहित्यिक क्षेत्र उनके नाम से शस्य-श्यामल है। उनका साहित्यिक परिचय केवल उनकी रचनाओं का विवरण नहीं, बल्कि एक ऐसे व्यक्तित्व से मिलाप है जिसने हिंदी साहित्य को नई दिशा, नई ऊँचाई और एक चिरस्थायी प्रतिष्ठा प्रदान की।

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Satish Kumar Is A Journalist With Over 10 Years Of Experience In Digital Media. He Is Currently Working As Editor At Aman Shanti, Where He Covers A Wide Variety Of Technology News From Smartphone Launches To Telecom Updates. His Expertise Also Includes In-depth Gadget Reviews, Where He Blends Analysis With Hands-on Insights.
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