harivansh rai bachchan ka jeevan parichay | जीवनी और रचनाएँ

सतीश कुमार

Harivansh Rai Bachchan  हिंदी साहित्य के आकाश में वह एक ऐसा ध्रुवतारा हैं, जिसने न केवल कविता की दुनिया में एक नए दौर की शुरुआत की, बल्कि एक ऐसी विरासत को जन्म दिया जो सिनेमा और संस्कृति में आज भी जीवित है। हरिवंश राय बच्चन – यह नाम स्वयं में एक इतिहास, एक क्रांति और एक मधुर संगीत समेटे हुए है। उनकी ‘मधुशाला’ ने जन-जन के हृदय में जो स्थान बनाया, वह अद्वितीय है। वह सिर्फ एक कवि नहीं, बल्कि एक विद्वान शिक्षक, एक सशक्त अनुवादक और एक ऐसे पिता थे, जिन्होंने भारतीय सिनेमा के ‘शहंशाह’ अमिताभ बच्चन को जन्म दिया।

यह लेख हरिवंश राय बच्चन जी के सम्पूर्ण जीवन परिचय (Harivansh Rai Bachchan Ka Jeevan Parichay) को समर्पित है। हम उनके बचपन, शिक्षा, साहित्यिक सफर, विचारधारा, व्यक्तिगत जीवन के उतार-चढ़ाव और उनकी अमर रचनाओं की गहराई में उतरेंगे। आइए, शुरुआत करते हैं उस सफर की, जिसने हिंदी साहित्य को एक नई दिशा दी।

प्रारंभिक जीवन और पारिवारिक पृष्ठभूमि (1907-1926)

जन्म और वंश परिचय

हरिवंश राय बच्चन का जन्म 27 नवंबर, 1907 को एक कायस्थ परिवार में इलाहाबाद (अब प्रयागराज), उत्तर प्रदेश में हुआ था। उनके पिता का नाम प्रताप नारायण श्रीवास्तव और माता का नाम सरस्वती देवी था। उनके पिता एक साधारण गृहस्थ थे, जबकि उनकी माँ एक धार्मिक और स्नेहमयी महिला थीं। उनके परिवार की आर्थिक स्थिति बहुत समृद्ध नहीं थी, लेकिन संस्कार और शिक्षा के प्रति लगन उनके घर का मुख्य आधार थी।

बचपन और शिक्षा का आरंभ

उनका बचपन इलाहाबाद की पवित्र भूमि पर बीता। उनकी प्रारंभिक शिक्षा एक स्थानीय स्कूल में हुई। बचपन से ही उनमें पढ़ने-लिखने की ललक थी। उन्होंने हिंदी, संस्कृत और फारसी की शिक्षा ग्रहण की। उन दिनों अंग्रेजी शिक्षा का भी प्रचलन बढ़ रहा था, इसलिए उन्होंने अंग्रेजी साहित्य का भी गहन अध्ययन किया।

एक दिलचस्प घटना है उनके नामकरण की। उनका प्रारंभिक नाम हरिवंश राय श्रीवास्तव था। लेकिन बाद में, जब वह हिंदी साहित्य में अपनी पहचान बनाने लगे, तो उन्होंने ‘बच्चन’ उपनाम अपनाया, जोकि बाद में उनके आधिकारिक उपनाम के रूप में प्रसिद्ध हुआ। ‘बच्चन’ का अर्थ है ‘बच्चा’ या ‘संतान’। कहा जाता है कि इस नाम को चुनने के पीछे उनकी सरल और बाल-जैसी मासूमियत थी।

वैवाहिक जीवन की पहली झलक: श्यामा बच्चन

1926 में, मात्र 19 वर्ष की आयु में, हरिवंश राय बच्चन का विवाह श्यामा नाम की एक कन्या से हुआ। यह विवाह उस जमाने की परंपरा के अनुसार तय हुआ था। लेकिन दुर्भाग्यवश, यह सुख अधिक दिनों तक नहीं रहा। विवाह के केवल दस वर्ष बाद, 1936 में, श्यामा बच्चन का टीबी (तपेदिक) नामक बीमारी के कारण देहांत हो गया। इस घटना ने युवा हरिवंश राय के हृदय पर गहरा घाव दिया। इस दर्द ने उनकी कविताओं में एक नई संवेदनशीलता और गहराई भर दी।

शिक्षा और बौद्धिक विकास का सफर

हरिवंश राय बच्चन की शिकक्षा यात्रा उनके बौद्धिक विकास की नींव रखती है। उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से अंग्रेजी साहित्य में एम.ए. किया। इलाहाबाद विश्वविद्यालय उस समय बौद्धिक चेतना और राष्ट्रीय आंदोलन का एक प्रमुख केंद्र था। यहाँ उनका संपर्क तत्कालीन प्रमुख साहित्यकारों और विचारकों से हुआ।

लेकिन उनकी शिक्षा की भूख यहीं समाप्त नहीं हुई। उन्होंने कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय, इंग्लैंड के सेंट कैथरीन कॉलेज से पीएच.डी. की उपाधि प्राप्त की। उनका शोध का विषय था – “आयरिश कवि डब्ल्यू. बी. यीट्स और ऑकल्टिज्म” (W.B. Yeats and Occultism)। कैम्ब्रिज से डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त करने वाले वह पहले भारतीय थे, जिन्होंने अंग्रेजी साहित्य में शोध किया था। यह एक ऐतिहासिक उपलब्धि थी, जिसने न केवल उनके ज्ञान का परिचय दिया, बल्कि भारतीयों की बौद्धिक क्षमता को विश्व पटल पर रेखांकित किया।

उनकी शिक्षा ने उन्हें द्विभाषी (Bilingual) विद्वान बनाया। वह हिंदी और अंग्रेजी दोनों भाषाओं पर समान अधिकार रखते थे, जिसका प्रभाव उनकी मौलिक रचनाओं और अनुवाद कार्यों में स्पष्ट देखा जा सकता है।

साहित्यिक यात्रा: छायावाद से हालावाद तक

हरिवंश राय बच्चन की साहित्यिक यात्रा का आरंभ छायावादी युग से हुआ। उन पर महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ का गहरा प्रभाव था। लेकिन जल्द ही उन्होंने अपनी एक अलग राह बनाई, जिसे ‘हालावाद’ के नाम से जाना गया।

हालावाद क्या है? एक क्रांतिकारी दृष्टिकोण

हालावाद, जिसका शाब्दिक अर्थ है ‘मस्ती का सिद्धांत’ या ‘आनंद का पथ’, हरिवंश राय बच्चन की देन है। यह छायावाद की अतिशय भावुकता और रहस्यवाद के विरुद्ध एक प्रतिक्रिया थी। हालावाद ने जीवन के यथार्थ, उसके दुख-सुख और उसके प्रति एक रोमांचकारी दृष्टिकोण अपनाया।

हालावाद की मुख्य विशेषताएं:

  • जीवन के प्रति आशावाद: इसमें जीवन की कठिनाइयों से घबराने के बजाय, उनका सामना करने और जीवन का आनंद लेने का संदेश है।

  • यथार्थवाद: छायावाद के स्वप्निल लोक से अलग, हालावाद ने सामान्य मनुष्य के जीवन के यथार्थ को केंद्र में रखा।

  • रहस्यवाद का अभाव: इसमें अलौकिक या रहस्यमय तत्वों के स्थान पर मानवीय अनुभूतियों और संवेदनाओं को प्रमुखता दी गई।

  • सरल और संगीतमय भाषा: हालावाद की भाषा अत्यंत सरल, बोलचाल के करीब और संगीतमय है, जिसने इसे आम जनता तक पहुँचाया।

हालावाद ने हिंदी कविता को एक नया जनवादी स्वर दिया और उसे सामान्य पाठकों के और करीब लाया।

‘मधुशाला’: एक सांस्कृतिक महाकाव्य

1935 में प्रकाशित ‘मधुशाला’ हरिवंश राय बच्चन की सर्वाधिक प्रसिद्ध और लोकप्रिय रचना है। यह केवल एक काव्य-संग्रह नहीं, बल्कि एक सांस्कृतिक परिघटना बन गई। इसमें 135 रुबाइयाँ (चार पंक्तियों की कविताएँ) हैं, जो एक दार्शनिक और रूपक के रूप में जीवन की विभिन्न स्थितियों को चित्रित करती हैं।

‘मधुशाला’ के प्रमुख रूपक:

  • मधुशाला (शराबघर): यह संसार का प्रतीक है।

  • साकी (शराब परोसने वाली): यह ईश्वर या नियति की प्रतीक है।

  • मधु (शराब): यह जीवन का आनंद और आनंद लेने की चाहत का प्रतीक है।

  • प्याला (कप): यह मानव शरीर का प्रतीक है।

‘मधुशाला’ की कुछ पंक्तियाँ आज भी लोगों के जुबान पर हैं:

“मदिरालय जाने को घर से चलता है पीनेवला,
‘किस पथ से जाऊँ?’ असमंजस में है वह भोलाभाला,
अलग-अलग पथ बतलाते सब, पर मैं यह बतलाता हूँ —
‘राह पकड़ तू एक चला चल, पा जाएगा मधुशाला।'”

‘मधुशाला’ की सफलता अभूतपूर्व थी। इसने बच्चन जी को रातों-रात हिंदी साहित्य के सबसे चर्चित नामों में शुमार कर दिया। इसकी लोकप्रियता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि आज भी, दशकों बाद, इसकी कविताएँ काव्य-गोष्ठियों, शादी-समारोहों और सांस्कृतिक कार्यक्रमों में गूंजती हैं।

मधुशाला के बाद का सफर: अन्य प्रमुख रचनाएँ

‘मधुशाला’ की सफलता के बाद भी बच्चन जी का सृजनात्मक प्रवाह थमा नहीं। उन्होंने कई और महत्वपूर्ण रचनाएँ दीं, जो विभिन्न विषयों और भावनाओं पर केंद्रित हैं।

1. मधुबाला (1936) और मधुकलश (1937):
ये दोनों रचनाएँ ‘मधुशाला’ की त्रयी (Trilogy) को पूरा करती हैं। ‘मधुबाला’ प्रेम और सौंदर्य की अभिव्यक्ति है, जबकि ‘मधुकलश’ जीवन के दार्शनिक पहलुओं को गहराई से छूती है।

2. निशा निमंत्रण (1938):
यह रचना अकेलेपन और आत्मिक पीड़ा की अभिव्यक्ति है। इसमें कवि रात्रि को अपनी सहचरी मानकर उससे वार्तालाप करता है।

3. एकांत संगीत (1939):
इस काव्य-संग्रह में कवि के आंतरिक विचारों और अकेलेपन में गूंजते स्वरों की झलक मिलती है। यह छायावादी प्रभाव और हालावाद के संगम को दर्शाता है।

4. सतरंगिनी (1945):
जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है, यह रचना जीवन के विविध रंगों को चित्रित करती है। इसमें जीवन के सुख-दुख, उम्मीद और निराशा सभी का वर्णन है।

5. आरती और अंगारे (1965):
यह संग्रह उनके परिपक्व दृष्टिकोण को दर्शाता है, जिसमें भक्ति, समर्पण और सामाजिक विषमताओं के प्रति आक्रोश दोनों शामिल हैं।

व्यक्तिगत जीवन का दूसरा अध्याय: तेजी बच्चन से विवाह

पहली पत्नी श्यामा के निधन के बाद हरिवंश राय बच्चन अकेले पड़ गए थे। लेकिन 1941 में, उन्होंने तेजी सूरी से विवाह किया, जो एक पंजाबी ब्राह्मण परिवार से ताल्लुक रखती थीं और उस जमाने में एक स्वतंत्र विचारों वाली, शिक्षित महिला थीं। यह विवाह उस समय काफी चर्चा का विषय बना, क्योंकि यह एक अंतर-जातीय विवाह था।

तेजी बच्चन ने न केवल उनके जीवन में फिर से प्यार और साहचर्य भरा, बल्कि उनके साहित्यिक और व्यक्तिगत जीवन को स्थिरता प्रदान की। उनका यह विवाह अत्यंत सफल और प्रेरणादायक रहा। इसी संबंध से उनके दो पुत्र हुए – अमिताभ बच्चन और अजिताभ बच्चन।

अमिताभ बच्चन: एक साहित्यकार का सिनेमा के महानायक को जन्म देना

हरिवंश राय बच्चन और तेजी बच्चन के बड़े पुत्र, अमिताभ बच्चन, भारतीय सिनेमा के इतिहास के सबसे महान और प्रभावशाली अभिनेता बने। अमिताभ के जीवन पर उनके पिता के साहित्यिक और सांस्कृतिक संस्कारों का गहरा प्रभाव रहा। अमिताभ बच्चन ने स्वयं कई मौकों पर कहा है कि उनके पिता की दी हुई शिक्षा और अनुशासन ने ही उन्हें जीवन में इतनी ऊँचाइयों तक पहुँचाया।

एक दिलचस्प तथ्य यह है कि अमिताभ बच्चन ने अपने फिल्मी करियर की शुरुआत में एक गायक के रूप में भी काम किया था और उन्होंने अपने पिता की कविताओं को आवाज़ दी थी। बाद में भी, अमिताभ अक्सर सार्वजनिक मंचों पर अपने पिता की कविताएँ सुनाकर श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर देते हैं।

पेशेवर जीवन और अनुवाद कार्य

हरिवंश राय बच्चन ने अपने जीवन के एक बड़े हिस्से तक शिक्षण कार्य किया। वह इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अंग्रेजी साहित्य के प्रोफेसर रहे। उनके व्याख्यान अत्यंत लोकप्रिय थे और छात्र उनसे बहुत प्रभावित थे।

लेकिन उनके पेशेवर जीवन का सबसे महत्वपूर्ण पहलू था – भारत सरकार के विदेश मंत्रालय में हिंदी विशेषज्ञ के रूप में कार्य करना। वह 1955 से 1961 तक इस पद पर रहे। इस दौरान उन्होंने हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में प्रतिष्ठित करने और उसके प्रचार-प्रसार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

अनुवाद कार्य: साहित्यिक सेतु निर्माता

बच्चन जी एक श्रेष्ठ अनुवादक भी थे। उनके अनुवाद कार्य ने हिंदी और अंग्रेजी साहित्य के बीच एक पुल का काम किया। उनके कुछ प्रमुख अनुवाद हैं:

  • भगवद्गीता का अंग्रेजी पद्यानुवाद: उन्होंने भगवद्गीता का अंग्रेजी में पद्य के रूप में अनुवाद किया, जो एक दुस्साध्य कार्य था। इस कार्य के लिए उन्हें 1965 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया।

  • शेक्सपियर के नाटक: उन्होंने शेक्सपियर के प्रसिद्ध नाटक ‘मैकबेथ’ और ‘ओथेलो’ का हिंदी में अनुवाद किया।

  • रबींद्रनाथ टैगोर की रचनाएँ: उन्होंने टैगोर की कई रचनाओं का भी अनुवाद किया।

उनका अनुवाद कार्य मात्र शब्दानुवाद नहीं था, बल्कि भावानुवाद था, जिसमें मूल रचना की आत्मा को हिंदी में उतारने का प्रयास किया गया था।

पुरस्कार और सम्मान

हरिवंश राय बच्चन के साहित्यिक योगदान को देखते हुए उन्हें अनेक पुरस्कारों और सम्मानों से नवाजा गया।

  • साहित्य अकादमी पुरस्कार (1965): भगवद्गीता के अंग्रेजी अनुवाद ‘The Bhagavad Gita’ के लिए।

  • पद्म भूषण (1976): भारत सरकार द्वारा साहित्य और शिक्षा के क्षेत्र में उनके योगदान के लिए दिया गया यह तीसरा सर्वोच्च नागरिक सम्मान है।

  • सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार (1979): भारत और USSR (रूस) के बीच सांस्कृतिक संबंधों को मजबूत करने के लिए।

  • सरस्वती सम्मान (1991): उनकी आत्मकथा ‘क्या भूलूँ क्या याद करूँ’ के लिए। यह एक प्रतिष्ठित साहित्यिक पुरस्कार है।

  • भारत भारती सम्मान (1985): उत्तर प्रदेश सरकार का सर्वोच्च साहित्यिक सम्मान।

आत्मकथा: ‘क्या भूलूँ क्या याद करूँ’

हरिवंश राय बच्चन की चार-खंडों में लिखी गई आत्मकथा हिंदी साहित्य की एक मील का पत्थर है। इसकी श्रृंखला इस प्रकार है:

  1. क्या भूलूँ क्या याद करूँ (1969)

  2. नीड़ का निर्माण फिर (1970)

  3. बसेरे से दूर (1977)

  4. दशद्वार से सोपान तक (1985)

यह आत्मकथा केवल उनके व्यक्तिगत जीवन का ही विवरण नहीं है, बल्कि उस दौर के सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक परिवेश का एक जीवंत दस्तावेज है। इसमें उन्होंने अपने जीवन के उतार-चढ़ाव, संघर्ष, सफलताओं और अंतरंग पलों को बेहद ईमानदारी और खूबसूरती के साथ चित्रित किया है। यह आत्मकथा हिंदी साहित्य की सर्वश्रेष्ठ आत्मकथाओं में से एक मानी जाती है।

जीवन के अंतिम दिन और विरासत

हरिवंश राय बच्चन का 18 जनवरी, 2003 को मुंबई में देहांत हो गया। वह 95 वर्ष के थे। उनका निधन हिंदी साहित्य की एक युग का अंत था।

लेकिन एक सच्चे साहित्यकार की मृत्यु उसकी रचनाओं से नहीं होती। हरिवंश राय बच्चन आज भी अपनी ‘मधुशाला’ की पंक्तियों में, अपनी आत्मकथा के पन्नों में और अपनी विरासत के माध्यम से जीवित हैं। उन्होंने न केवल हिंदी साहित्य को समृद्ध किया, बल्कि एक ऐसी पारिवारिक विरासत को जन्म दिया, जो भारतीय संस्कृति के विभिन्न आयामों में फल-फूल रही है।

निष्कर्ष: हरिवंश राय बच्चन का साहित्यिक व्यक्तित्व

हरिवंश राय बच्चन एक ऐसे सर्जक थे, जिन्होंने अपनी कलम से जीवन के हर रंग को छुआ। वह एक सफल कवि, विद्वान शिक्षक, कुशल अनुवादक और एक प्रेमी पति एवं पिता थे। उन्होंने हिंदी कविता को जन-जन तक पहुँचाया और उसे एक नई ऊर्जा और दिशा दी। उनकी ‘मधुशाला’ ने लाखों लोगों को जीवन जीने की कला सिखाई।

उनका जीवन परिचय (Harivansh Rai Bachchan Ka Jeevan Parichay) हमें सिखाता है कि साहित्य और जीवन एक-दूसरे के पूरक हैं। उनकी रचनाएँ आज भी प्रासंगिक हैं और आने वाली पीढ़ियों को प्रेरणा देती रहेंगी। वह सच्चे अर्थों में हिंदी साहित्य के युगपुरुष थे, जिनकी मधुर वाणी आज भी हमारे कानों में गूंजती है।

“यह जीवन है नश्वर, पर मधुर है इसका नशा,
पीने वाला हर कोई है, बस साकी है वही एक।”

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Satish Kumar Is A Journalist With Over 10 Years Of Experience In Digital Media. He Is Currently Working As Editor At Aman Shanti, Where He Covers A Wide Variety Of Technology News From Smartphone Launches To Telecom Updates. His Expertise Also Includes In-depth Gadget Reviews, Where He Blends Analysis With Hands-on Insights.
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