निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल।
बिन निज भाषा-ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल।।”
ये पंक्तियाँ आज भी हर हिंदी प्रेमी के हृदय में गूँजती हैं। इन्हें लिखने वाले थे हिंदी साहित्य के एकमात्र सिंहासन के अधिपति, एक ऐसा सूर्य जिसने हिंदी के अंधकारमय आकाश को रोशनी से भर दिया, एक ऐसा नक्षत्र जिसकी चमक आज भी बरकरार है—भारतेन्दु हरिश्चन्द्र। उन्हें ‘हिंदी साहित्य का जनक’, ‘हिंदी नाटक के प्रणेता’ और ‘आधुनिक हिंदी साहित्य का प्रवर्तक’ कहा जाता है।
लेकिन भारतेन्दु केवल एक साहित्यकार ही नहीं थे। वे एक कवि, नाटककार, पत्रकार, समाज-सुधारक और राष्ट्रवादी चिंतक थे। उन्होंने मात्र 34 वर्ष के छोटे से जीवनकाल में ही ऐसा क्रांतिकारी कार्य किया, जिसने सदियों तक हिंदी साहित्य की दिशा और दशा तय की। इस विस्तृत लेख में, हम भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का जीवन परिचय (Bhartendu Harishchandra ka Jeevan Parichay) उनके जन्म से लेकर मृत्यु तक, उनकी रचनाओं, उनके योगदान और उनकी विरासत का सूक्ष्मता से अध्ययन करेंगे।
1. प्रस्तावना: भारतेन्दु युग का सूत्रपात
19वीं शताब्दी का भारत एक ऐसा दौर था जब देश परतंत्रता की बेड़ियों में जकड़ा हुआ था। अंग्रेजी शासन का प्रभाव हर क्षेत्र में था और शिक्षा, साहित्य तथा संस्कृति पर भी पाश्चात्य प्रभाव हावी हो रहा था। ऐसे में हिंदी साहित्य एक प्रकार से निष्क्रिय-सा हो चुका था। भक्ति और रीति काल की चमक फीकी पड़ने लगी थी। ऐसे संक्रमण काल में एक ऐसे नेता की आवश्यकता थी जो हिंदी साहित्य को नई दिशा, नई चेतना और नई ऊर्जा प्रदान कर सके।
यही कार्य किया भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने। उन्होंने न केवल साहित्य की विविध विधाओं—काव्य, नाटक, उपन्यास, पत्रकारिता, निबंध आदि—में हिंदी को समृद्ध किया, बल्कि उसे जनसामान्य की भाषा बनाया। उन्होंने साहित्य को राजदरबारों और साधुओं-संन्यासियों की गुफाओं से निकालकर आम जनता के बीच पहुँचाया। उनके इसी अभूतपूर्व योगदान के कारण हिंदी साहित्य के इतिहास में 1857 से 1900 तक के काल को ‘भारतेन्दु युग’ के नाम से जाना जाता है। वे वास्तव में एक ‘युगप्रवर्तक’ थे।
2. प्रारंभिक जीवन: जन्म, परिवार और शिक्षा-दीक्षा
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का जन्म 9 सितम्बर, 1850 को काशी (वर्तमान वाराणसी) के एक संपन्न और प्रतिष्ठित वैश्य परिवार में हुआ था। उनके पिता श्री गोपाल चन्द्र एक धनी जमींदार और काव्य-प्रेमी सज्जन थे। उनकी माता का नाम श्रीमती पार्वती देवी था। हरिश्चन्द्र के परिवार को ‘सेठ’ कहा जाता था और वे ‘अमरचंद’ के नाम से विख्यात थे।
दुर्भाग्य से, जब हरिश्चन्द्र मात्र पाँच वर्ष के थे, तभी उनके पिता का स्वर्गवास हो गया। और इससे भी बड़ा दुर्भाग्य यह हुआ कि जब वे मात्र दस वर्ष के थे, तो उनकी माता का भी देहांत हो गया। इस प्रकार बचपन में ही माता-पिता के स्नेह और सुरक्षा से वंचित हो गए। उनके पालन-पोषण की जिम्मेदारी उनकी दादी ने संभाली।
इतनी कम उम्र में ही माता-पिता को खो देने का दुःख उनके कोमल हृदय पर गहरा असर डाल गया, जिसकी झलक बाद में उनकी करुण रस प्रधान रचनाओं में देखने को मिली।
शिक्षा: हरिश्चन्द्र ने प्रारंभिक शिक्षा घर पर ही प्राप्त की। उन्होंने हिंदी, संस्कृत, उर्दू, फारसी और बंगला भाषा का गहन अध्ययन किया। उनके गुरुओं में पंडित बलदेव तिवारी और पंडित महेशचंद्र जैसे विद्वान शामिल थे। अंग्रेजी शिक्षा पर भी उनका अच्छा अधिकार था, जिससे वे पश्चिमी साहित्य और विचारधारा से भी परिचित हो सके। काशी के इस सांस्कृतिक वातावरण और बहुभाषिक ज्ञान ने उनके साहित्यिक व्यक्तित्व को गढ़ने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
कहा जाता है कि मात्र सात-आठ वर्ष की आयु में ही उन्होंने अपनी पहली कविता की रचना कर दी थी। एक बार उनके पिता ने उनसे एक दोहा पूरा करने को कहा, जिसके दो चरण थे— “लखि तरुवर फल भार।” मात्र पाँच वर्ष के बालक हरिश्चन्द्र ने तत्काल उत्तर दिया— “तरुवर फलन हित होत हरे।” यह सुनकर सभी दंग रह गए। इस छोटी सी घटना ने ही उनके भीतर छिपे प्रतिभाशाली कवि के दर्शन करा दिए थे।
3. वैवाहिक जीवन और व्यक्तिगत संघर्ष
माता-पिता की मृत्यु के बाद हरिश्चन्द्र का जीवन संघर्षों से भरा रहा। उनका विवाह माननीय देवी से हुआ। लेकिन दुर्भाग्य ने उनका पीछा नहीं छोड़ा। उनके दो पुत्र हुए, लेकिन दोनों की ही अल्पायु में मृत्यु हो गई। पुत्र-मृत्यु का यह दुःख उन्हें जीवन भर सालता रहा। इसके अलावा, परिवार की जिम्मेदारियाँ, जमींदारी के झंझट और आर्थिक समस्याएँ भी उन पर बनी रहीं।
इन सभी व्यक्तिगत दुःखों और संघर्षों ने उनके साहित्य को एक विशेष मार्मिकता और यथार्थवादी दृष्टि प्रदान की। उनकी रचनाओं में जीवन के प्रति एक गहरी पीड़ा और करुणा का भाव मिलता है, जो उनके अपने जीवन के अनुभवों से ही उपजा था।
4. साहित्यिक यात्रा का प्रारम्भ: काव्य रचना
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने साहित्यिक जीवन की शुरुआत एक कवि के रूप में की। उनकी काव्य-यात्रा परंपरागत ढंग से शुरू हुई। उन्होंने भक्ति, श्रृंगार और प्रकृति चित्रण पर आधारित कविताएँ लिखीं। उनके प्रारंभिक काव्य संग्रहों में ‘प्रेम-प्रलाप’, ‘प्रेम-फुलवारी’, ‘प्रेम-सरोवर’ और ‘होली’ जैसे ग्रंथ शामिल हैं, जिनमें श्रृंगार रस की प्रधानता है।
लेकिन जैसे-जैसे वे परिपक्व हुए, उनकी कविता का स्वरूप बदला। उन्होंने समाज में फैली कुरीतियों, अंग्रेजी शासन के शोषण और राष्ट्रीय चेतना को अपनी कविता का विषय बनाया। उनकी कविता ‘भारत दुर्दशा’ इसका सर्वोत्तम उदाहरण है, जिसमें उन्होंने देश की दयनीय स्थिति का मार्मिक चित्रण किया है।
उदाहरण:
“यह देखो भारत की दुर्दशा, कोई पूछता नहीं है।
जगती में भारतवर्ष का, कोई ठिकाना नहीं है।।”
उनकी कविताओं में हास्य और व्यंग्य का पुट भी मिलता है। उन्होंने ‘वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति’, ‘सुलभ संस्कृत’ जैसी रचनाओं में समाज के ढोंग और पाखंड पर करारा व्यंग्य किया है। इस प्रकार, उन्होंने काव्य को केवल मनोरंजन का साधन नहीं, बल्कि सामाजिक परिवर्तन का हथियार बनाया।
5. नाटककार के रूप में भारतेन्दु: हिंदी रंगमंच का नव-निर्माण
यदि भारतेन्दु हरिश्चन्द्र को हिंदी साहित्य में सबसे बड़ा योगदान किसी एक विधा में देना है, तो वह है नाटक। उन्हें ‘हिंदी नाटक का जनक’ कहा जाता है। उनसे पहले हिंदी में मौलिक नाटकों का अभाव था। भारतेन्दु ने न केवल मौलिक नाटक लिखे, बल्कि संस्कृत, बंगला और अंग्रेजी से अनुवाद और adaption करके हिंदी नाट्य साहित्य को समृद्ध किया।
उन्होंने नाटकों के माध्यम से जनता में जागृति लाने का प्रयास किया। उनके नाटकों के प्रमुख विषय थे—देशभक्ति, समाज सुधार, ऐतिहासिक गौरव और हास्य-व्यंग्य।
प्रमुख नाटक और उनकी विशेषताएँ:
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भारत दुर्दशा (1880): यह एक राष्ट्रवादी नाटक है, जिसमें अंग्रेजी शासन के अत्याचारों और भारत की दुर्दशा का मार्मिक चित्रण है। यह नाटक देशप्रेम की भावना से ओत-प्रोत है।
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अंधेर नगरी (1881): यह भारतेन्दु का सबसे लोकप्रिय और प्रसिद्ध नाटक है। यह एक व्यंग्यात्मक नाटक है, जिसमें एक ऐसे नगर की कहानी है जहाँ का राजा मूर्ख और न्याय व्यवस्था हास्यास्पद है। “अंधेर नगरी चौपट राजा, टके सेर भाजी टके सेर खाजा” का यह प्रसिद्ध डायलॉग आज भी भ्रष्ट और मूर्ख शासकों के लिए इस्तेमाल किया जाता है। यह नाटक तत्कालीन शासन व्यवस्था पर एक करारा प्रहार है।
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सत्य हरिश्चन्द्र (1875): यह नाटक संस्कृत और मराठी नाटकों के आधार पर लिखा गया है। इसमें सत्यवादी राजा हरिश्चन्द्र की कथा को बहुत ही मार्मिक ढंग से प्रस्तुत किया गया है। इस नाटक ने हिंदी रंगमंच को एक नई जान दी।
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नीलदेवी (1881): यह एक ऐतिहासिक नाटक है, जो राजपूताने के वीरों और उनकी बलिदानी गाथाओं पर आधारित है। इसके माध्यम से उन्होंने देशवासियों में वीरता और बलिदान की भावना जगाने का प्रयास किया।
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विद्या सुन्दर (1868): यह बंगला नाटक के आधार पर लिखा गया एक श्रृंगारिक नाटक है, जिसने हिंदी रंगमंच को लोकप्रिय बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
भारतेन्दु ने नाटकों को केवल पढ़ने की वस्तु नहीं, बल्कि मंचन के योग्य बनाया। उन्होंने स्वयं काशी में नाटक मंडली का गठन किया और अपने नाटकों का मंचन करवाया। इस प्रकार, उन्होंने हिंदी रंगमंच की नींव रखी।
6. पत्रकारिता के क्षेत्र में अग्रणी भूमिका: ‘कविवचन सुधा’ और ‘हरिश्चन्द्र चंद्रिका’
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र आधुनिक हिंदी पत्रकारिता के भी पितामह माने जाते हैं। उन्होंने पत्रकारिता को सामाजिक जागरण का एक शक्तिशाली माध्यम बनाया। उनके द्वारा संपादित दो पत्रिकाओं ने हिंदी जगत में हलचल मचा दी थी।
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कविवचन सुधा (1867): इस मासिक पत्रिका की शुरुआत उन्होंने मात्र 17 वर्ष की आयु में की थी। बाद में यह साप्ताहिक हो गई। इस पत्रिका के माध्यम से उन्होंने न केवल अपनी और अन्य कवियों की रचनाएँ प्रकाशित कीं, बल्कि समसामयिक विषयों, सामाजिक कुरीतियों और राजनीतिक मुद्दों पर तीखे संपादकीय लिखे। इस पत्रिका ने हिंदी के नए लेखकों को एक मंच प्रदान किया।
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हरिश्चन्द्र चंद्रिका (1873): यह एक साप्ताहिक पत्रिका थी, जिसे उन्होंने अपने और अपने भाई के नाम पर शुरू किया। यह पत्रिका और भी जुझारू और व्यंग्यप्रधान थी। इसमें उन्होंने अंग्रेजी शासन की नीतियों की खुलकर आलोचना की।
इन पत्रिकाओं के माध्यम से भारतेन्दु ने हिंदी को सशक्त बनाया और उसे जनसंचार की भाषा के रूप में स्थापित किया। उनकी पत्रकारिता निर्भीक, साहसी और राष्ट्रीय भावनाओं से ओत-प्रोत थी।
7. समाज सुधार के प्रति समर्पण: रूढ़ियों के विरुद्ध अभियान
19वीं शताब्दी का भारतीय समाज अनेक कुरीतियों और रूढ़ियों से जकड़ा हुआ था। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने अपनी लेखनी के माध्यम से इन सभी बुराइयों पर प्रहार किया।
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विधवा-विवाह का समर्थन: उन्होंने विधवाओं की दयनीय स्थिति पर करुणा जताई और विधवा-विवाह का पुरजोर समर्थन किया। उन्होंने ‘वैश्योपकारक’ जैसे समाचार पत्रों में इसके लिए लेख लिखे।
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बाल-विवाह और दहेज प्रथा का विरोध: उन्होंने अपने नाटकों और लेखों में बाल-विवाह और दहेज प्रथा जैसी सामाजिक बुराइयों पर कठोर व्यंग्य किया।
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साम्प्रदायिक सद्भाव: उन्होंने हिंदू-मुस्लिम एकता पर बल दिया। उनकी रचनाओं में सभी धर्मों के प्रति सम्मान का भाव दिखाई देता है।
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नारी शिक्षा का पक्ष: उन्होंने महिलाओं की शिक्षा के महत्व को रेखांकित किया और समाज में उनके अधिकारों की वकालत की।
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अंधविश्वासों का खंडन: उन्होंने समाज में फैले अंधविश्वासों और पोंगंटपंथियों पर ‘अंधेर नगरी’ जैसे नाटकों में खूब हास्य-व्यंग्य किया।
वे राजा राममोहन राय और ईश्वर चंद्र विद्यासागर जैसे समाज सुधारकों से प्रभावित थे और उन्होंने हिंदी क्षेत्र में उनके आंदोलनों को एक जनआंदोलन बनाने का कार्य किया।
8. राष्ट्रीय चेतना के प्रणेता: ‘भारत दुर्दशा’ और देशप्रेम
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र उन पहले हिंदी साहित्यकारों में से थे, जिन्होंने अपनी रचनाओं में स्पष्ट रूप से राष्ट्रीय चेतना की अलख जगाई। 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के बाद जब देश में राष्ट्रवाद की भावना का उदय हो रहा था, भारतेन्दु ने उसे साहित्यिक अभिव्यक्ति दी।
उनकी प्रसिद्ध रचना ‘भारत दुर्दशा’ इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। इस नाटक में उन्होंने भारत की गुलामी और उसके कारण उत्पन्न हुई समस्याओं का मार्मिक वर्णन किया है।
“अब कहाँ वह सुख सन्तोष, बहुत दिनन की बात गई।
भारतवर्ष के भाग सोये, जागते में रात गई।।”
उन्होंने ‘भारतमाता’ की अवधारणा को लोकप्रिय बनाया और देशवासियों को स्वदेशी अपनाने और अपनी संस्कृति पर गर्व करने की प्रेरणा दी। उनकी यह पंक्ति आज भी प्रासंगिक है— “निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल।” उनका मानना था कि बिना मातृभाषा की उन्नति के देश की उन्नति असंभव है।
उन्होंने अंग्रेजी शासन के आर्थिक शोषण (जैसे नील की खेती) का भी पर्दाफाश किया और जनता में राजनीतिक चेतना जगाई। इस प्रकार, वे केवल साहित्यकार ही नहीं, बल्कि एक राष्ट्रनिर्माता भी थे।
9. भारतेन्दु की प्रमुख कृतियाँ: एक संक्षिप्त विवरण
भारतेन्दु का साहित्यिक भंडार अत्यंत विशाल है। उन्होंने कम समय में ही विपुल साहित्य की रचना की। यहाँ उनकी प्रमुख कृतियों का वर्गीकरण प्रस्तुत है:
काव्य संग्रह:
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भक्तसर्वस्व: भक्ति रस प्रधान कविताएँ।
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प्रेम-प्रलाप: श्रृंगार रस की कविताएँ।
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प्रेम-फुलवारी: श्रृंगारिक गीत।
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प्रेम-सरोवर: प्रेम पर आधारित पद्य।
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उत्तरार्द्ध भक्तसर्वस्व: भक्ति की अंतिम अवस्था का वर्णन।
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होली: होली के अवसर पर लिखे गए गीत।
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मदन मोहिनी: श्रृंगारिक काव्य।
नाटक:
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वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति (1867): व्यंग्य नाटक।
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सत्य हरिश्चन्द्र (1875): पौराणिक नाटक।
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श्री चन्द्रावली (1876): श्रृंगारिक नाटक।
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भारत दुर्दशा (1880): राष्ट्रवादी नाटक।
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अंधेर नगरी (1881): व्यंग्य नाटक।
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नीलदेवी (1881): ऐतिहासिक नाटक।
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मुद्राराक्षस (1875): अनूदित नाटक (संस्कृत से)।
गद्य रचनाएँ:
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बद्धि-प्रकाश: हिंदी गद्य का एक प्रारंभिक निबंध संग्रह।
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पत्रिका संपादन: ‘कविवचन सुधा’ और ‘हरिश्चन्द्र चंद्रिका’ में प्रकाशित उनके सैकड़ों लेख, निबंध और संपादकीय।
10. साहित्य में भारतेन्दु का विशेष योगदान
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के योगदान को कुछ बिंदुओं में समेटा जा सकता है:
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हिंदी गद्य का विकास: उन्होंने हिंदी गद्य को परिपक्वता प्रदान की और उसे आधुनिक रूप दिया। उनके गद्य में खड़ी बोली की सरलता और प्रवाहमयता है।
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हिंदी नाटक की नींव: उन्होंने हिंदी में मौलिक नाट्य-लेखन की परंपरा शुरू की और उसे मंचन के योग्य बनाया।
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हिंदी पत्रकारिता का प्रवर्तन: उन्होंने पत्रकारिता को सामाजिक और राष्ट्रीय उद्देश्य से जोड़ा।
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राष्ट्रीय चेतना का साहित्यिक संचार: उन्होंने साहित्य को राष्ट्रीय भावनाओं की अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया।
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समाज सुधार की अलख: उन्होंने अपनी लेखनी से समाज में फैली कुरीतियों के विरुद्ध जनमत तैयार किया।
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साहित्यिक परिवेश का निर्माण: उन्होंने काशी को हिंदी साहित्य का केंद्र बनाया और नए लेखकों को प्रोत्साहित किया।
11. भारतेन्दु युग: साहित्यिक परिदृश्य का परिवर्तन
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के नेतृत्व में हिंदी साहित्य में एक नए युग का सूत्रपात हुआ, जिसे ‘भारतेन्दु युग’ (1857-1900) कहा जाता है। इस युग की मुख्य विशेषताएँ हैं:
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यथार्थवाद: साहित्य में आदर्शवाद के स्थान पर यथार्थवाद का प्रवेश हुआ। जीवन की वास्तविक समस्याओं को साहित्य का विषय बनाया गया।
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राष्ट्रीय भावना: साहित्य में देशप्रेम और राष्ट्रीय चेतना का स्वर मुखर हुआ।
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गद्य का विकास: पद्य के साथ-साथ गद्य विधाओं—नाटक, उपन्यास, निबंध, आलोचना—का तेजी से विकास हुआ।
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समाज सुधार: साहित्य का उद्देश्य मनोरंजन मात्र न रहकर समाज सुधार बन गया।
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खड़ी बोली का उत्थान: साहित्य की मुख्य भाषा के रूप में खड़ी बोली हिंदी का प्रचलन बढ़ा।
भारतेन्दु के सहयोगियों और शिष्यों में प्रताप नारायण मिश्र, राधाचरण गोस्वामी, बदरीनारायण चौधरी ‘प्रेमघन’ आदि का नाम प्रमुखता से लिया जाता है, जिन्होंने मिलकर इस युग को गौरवान्वित किया।
12. उपसंहार: हिंदी साहित्य के स्तंभ की अमर विरासत
मात्र 34 वर्ष की अल्पायु में 6 जनवरी, 1885 को इस महान साहित्यस्रष्टा का निधन हो गया। लेकिन इतने कम समय में ही उन्होंने जो विराट साहित्यिक साम्राज्य खड़ा किया, वह आज भी हिंदी साहित्य की अमूल्य धरोहर है।
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र वह सेतु हैं, जिसने हिंदी साहित्य के अतीत और भविष्य को जोड़ा। उन्होंने पुरानी परंपराओं को नकारा नहीं, बल्कि उनमें नवीनता का संचार किया और साहित्य को आधुनिक युग के अनुरूप ढाला। वे सच्चे अर्थों में एक ‘भारतेन्दु’ (भारत का चंद्रमा) थे, जिन्होंने अपनी शीतल और प्रकाशमयी किरणों से हिंदी साहित्य के अंधकार को दूर किया।
उनका नारा “निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल” आज भी हमें यह याद दिलाता है कि राष्ट्र की प्रगति का मूल आधार उसकी मातृभाषा है। उनकी व्यंग्यात्मक दृष्टि, जिसने ‘अंधेर नगरी’ जैसी कालजयी रचना दी, आज के भ्रष्टाचार और अत्याचार के विरुद्ध भी उतनी ही प्रासंगिक है।
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने हिंदी को केवल एक भाषा नहीं, एक जीवन-शैली, एक चेतना और एक राष्ट्रीय अभियान बनाया। हिंदी साहित्य का इतिहास उनके बिना अधूरा है। वे सदैव हिंदी के आकाश में एक चमकते सूर्य की भाँति प्रकाशमान रहेंगे।